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________________ पौधे, जीव-जन्तु जो बोल नहीं सकते, जिनमें भाषा की क्षमता नहीं है, इनको तो मारा जाता है। जो बड़े लोग हैं, इनका पोषण होता है। ये जो अहिंसा का रूप बन गया, इस रूप में अहिंसा की आत्मा का हनन कर दिया। अहिंसा की आत्मा विकृत हो गई। ___ हम अहिंसा के प्रारम्भ बिन्दु पर ध्यान दें। जहां हमारी चेतना अभेद की चेतना नहीं होगी वहां फिर भेदभाव, पक्षपात हो जायेगा। यह पक्षपात हिंसा को बढ़ावा देता है। अहिंसक चेतना का विकास करने के लिए आवश्यक है अहिंसा का अनुष्ठान। चेतना का रूपान्तरण अनुष्ठान के बिना नहीं होता। प्रेक्षाध्यान का एक प्रयोग है-सव्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाइ पासओ। सब जीवों को आत्मवत् देखो। इस सचाई के अनुशीलन और अभ्यास से चेतना का विकास या चेतना का रूपान्तरण होता है। सब प्राणी आत्मभूत हैं-यह जो सिद्धान्त है, इसका अनुध्यान करना, अनुप्रेक्षा करना चेतना का रूपान्तरण है। एक दिन नहीं, लम्बे समय तक, निरन्तर श्रद्धा के साथ इसका प्रयोग किया जाये तो हमारी भेदपरक चेतना विलीन होगी और अभेदपरक चेतना का जागरण होगा, अद्वैत का जागरण होगा। जो कोरा उच्चारण मात्र है। इसका तात्पर्य हमारे हृदयंगम होगा कि प्राणी मात्र समान है। हमारा आचार बदलेगा, व्यवहार बदलेगा। आचार और व्यवहार को बदलना स्थूल बात है हमारे लिए। सूक्ष्म बात है चेतना का रूपान्तरण। यदि चेतना का रूपान्तरण नहीं है तो सिद्धान्त के शब्द आप पकड़ पायेंगे किन्तु आचार, व्यवहार में परिवर्तन नहीं आयेगा। इसीलिए एक बात पर सब लोग ध्यान दें कि आचार और व्यवहार या नैतिकता बिल्कुल एक नहीं है। आचार मुख्यतः स्वगत होता है। नैतिकता पर से सम्बन्धित होती है। मेरी चेतना जागृत हुई कि सब प्राणी समान हैं, सब आत्माएं समान हैं। कोरा सिद्धान्त नहीं, इस प्रकार की चेतना का निर्माण हो गया, वह मेरा आचार है। इस आचार का नाम है समता। इस चेतना के रूपान्तरण का नाम है समता। वह मेरा आचार बन गया। अब इस आचार में से संहिता निकलेगी, दूसरों के लिए निकलेगी। वह मेरा व्यवहार या मेरी नैतिकता है। दूसरे के प्रति मैं क्या करूं? नैतिक व्यवहार करूं या नैतिक व्यवहार किया जाये- यह सिद्धान्त की बात तब तक वचनगत रहती है, जब तक आचार का अभ्युदय नहीं होता। हमें एक प्रक्रिया से चलना है-सबसे पहले एक प्रश्न पैदा हो कि मेरी दुर्गति न हो। जो विकास कर चुका, इससे हास की ओर न जाऊं। यह पहला बिन्दु होगा। इसके बाद है आचार की खोज। आचार की खोज में समता का स्रोत हमारे हाथ लगे। समता का मतलब है अद्वैत की, अभेद की चेतना का जागरण। वह चेतना जागेगी, इसमें से फिर व्यवहार या नैतिकता निकलेगी। वह है हमारी दूसरों के प्रति होनी वाली अहिंसा-किसी को मत मारो, किसी को मत सताओ, किसी को पीड़ा मत दो। इस पूरी प्रक्रिया को हम समझें, तब ही अहिंसा की पूरी प्रक्रिया का आत्मा से स्पर्श हो सकेगा, अन्यथा संभव नहीं है। अहिंसक चेतना का विकास वही कर सकता तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2008 - - 59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524637
Book TitleTulsi Prajna 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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