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हेतु तैयार हो जाते। प्रस्तुत प्रसंग में अहिच्छत्रा नगरी में व्यापार हेतु जाने वाले धन सार्थवाह वर्णन ज्ञातव्य है । 44 समुद्र यात्रा के लिए प्रस्थान से पूर्व पूरी तैयारी की जाती। लोग उनके प्रति मंगल भावना व्यक्त करते।
अर्हन्नक श्रमणोपासक ने अपने साथी यात्रियों के साथ प्रस्थान किया तो उनके मित्र व ज्ञातिजनों ने कहा- “हे अज्ज! ताय!... समुद्वेणं अभिरक्खिज्जमाणा अज्जरिक्खिज्जमाणा चिरं जीवह, भदं च भे, पुणरवि लट्ठे कयकज्जे अणहसमग्गे नियगं घरं हव्वमागए. पासामो” । हे तात! समुद्र के संरक्षण में तुम चिरजीवी बनो, तुम्हारा भद्र हो। तुम अपना प्रयोजन सिद्ध कर, कृतार्थ हो, निष्कलंक, ऐश्वर्य और परिवार से संपन्न हो, शीघ्र अपने घर आया हुआ देखें। 45
इसी तरह कालिक द्वीप की यात्रा का भी बहुत रोचक वर्णन है । कालिक द्वीप में हिरण्य, सुवर्ण, रत्न और वज्र की खानें थी, इसीलिए वह द्वीप व्यापारियों के विशेष आकर्षण का केन्द्र था। इससे भी ज्यादा आकर्षण के केन्द्र थे वहां के अश्व। वे गुण संपन्न व विभिन्न रंगों के थे । प्रस्तुत ग्रंथ में उनका जो वर्णन किया गया है, वह बहुत ही महत्वपूर्ण है
" हयवरा - जोवएस-कम्मवाहिणो वि य णं ।
सिक्खा विणीयविणया,
लंघण-वग्गण-धावण धोरण- तिवई जईण- सिक्खिय-गई। किं ते? मणसा वि उव्विहंताई अणेगाई आससयाइं पासंति ।।
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वे प्रवर अश्व निर्दिष्ट क्रम के अनुसार चलते थे। प्रशिक्षण प्राप्त होने से विनीत थे। वे लंघन, वल्गन, धावन, धोरणं त्रिपदी और वेगवती गति में प्रशिक्षित थे। और तो क्या, वे मन से भी सदा उछलते रहते थे। उन व्यापारियों ने वहां ऐसे सैंकड़ों अश्व देखे । " आज इस सारे वर्णन के आधार पर इन द्वीप समुद्रों की खोज की जाए तो निश्चित ही जैन साहित्य भारतीय इतिहास के लिए नया व सशक्त स्रोत सिद्ध हो सकता है।
उस युग में रथ और शिविका- ये दोनों मुख्य रूप से स्थल यात्रा के समय काम में आने वाले वाहन थे। नौका का प्रयोग जलयात्रा के लिए किया जाता था। आकाश मार्ग से यात्रा के लिए कोई वाहन उस समय आविष्कृत नहीं हुए थे। देवता अथवा विद्या सिद्ध ऋषि आकाश मार्ग से गमनागमन अवश्य किया करते थे। प्रस्तुत आगम में 'विमानों' का वर्णन है पर वह देवों के प्रसंग में है। नारदऋषि का नाम भारतीय इतिहास का एक सुपरिचित नाम है। उनके पास आकाश गामिनी प्रक्रमणी विद्या थी। वह उस विद्या के आधार पर आकाश मार्ग से हजारों ग्राम, नगर, जनपद आदि को लांघता हुआ एक देश से दूसरे देश पहुंच जाता था। 7 प्रस्तुत आगम में भगवती प्रक्रमणी विद्या, उत्पतनी विद्या, अवस्वापिनी विद्या, तालोद्घाटिनी विद्या आदि अनेक विद्याओं का
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-सितम्बर, 2008
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