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________________ के बावजूद आज कर्नाटक, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, बिहार आदि के अनेक मठों, मंदिरों में दुर्लभ पाण्डुलिपियों को समाहित करने वाले सहस्त्राधिक शास्त्र भंडार उपलब्ध हैं। जैन आचार्यों एवं प्रबुद्ध श्रावकों की साधना का प्रमुख लक्ष्य आत्मसाधना रहा है। यद्यपि जैन परम्परा स्वयं के तपश्चरण के माध्यम से कर्मों की निर्जरा कर आत्मा से परमात्मा बनने में विश्वास करती है, तथापि आत्म साधना से बचे हुए समय में जन कल्याण की पुनीत भावना अथवा श्रावकों के प्रति वात्सल्य भाव से अनुप्राणित होकर जैनाचार्यो ने लोकहित के अनेक विषयों पर विपुल ग्रंथ राशि का सृजन भी किया है। सम्पूर्ण जैन साहित्य के विषयानुसार विभाजन, जिसे अनुयोग की संज्ञा दी जाती है, के क्रम में निम्नवत चार वर्ग प्राप्त होते हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखा है- प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः । ' तदनुसार चार अनुयोग निम्न हैं - 1. प्रथमानुयोग - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चार पुरुषार्थों तथा इनकी साधना करने वालों की कथाएं महापुरूषों के जीवन चरित्र, त्रेषठ श्लाका पुरुषों एवं उनके पूर्व भवों का जीवनवृत्त, पुण्यकथाएं आदि इसमें सम्मिलित हैं। जैसे- आदिपुराण, हरिवंशपुराण आदि । 2. करणानुयोग - इसमें लोक के स्वरूप भूगोल- खगोल, गणित, कर्म सिद्धान्त आदि की चर्चा है। जैसे-तिलोयपण्णत्ती, जम्बुद्दीवपण्णत्तिसंगहो, गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार, त्रिलोकसार आदि । 3 चरणानुयोग- इसमें गृहस्थों एवं साधुओं के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि एंव संरक्षण के नियमों का वर्णन समाहित है। जैसे - मूलाचार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अनगार धर्मामृत, सागर धर्मामृत आदि। 4 द्रव्यानुयोग - इसमें जीव - अजीव आदि सात तत्त्वों, नव पदार्थो, षट्द्रव्यों, अध्यात्म विषयक चर्चा है। जैसे-पंचास्तिकाय, समयसार, प्रवचनसार, द्रव्यसंग्रह आदि। इस विभाजन से स्पष्ट है कि करणानुयोग का साहित्य गणितीय सिद्धान्तों से परिपूर्ण है। लोक के स्वरूप के विवेचन, आकार, प्रकार, ग्रहों की स्थिति इत्यादि के निर्देशन में अनेक जटिल ज्यामिति संरचनाओं, मापन की पद्धतियों का विवेचन तो मिलता ही है, कर्म की प्रकृतियों .. के विवेचन में क्रमचय-र -संचय (Combination and Permutation) राशि सिद्धान्त (Set Theory), निकाय सिद्धान्त ( System Theory), घातांक के सिद्धान्त (Theory of Indices), लघुगुणकीय सिद्धान्त (Principal of Logaraithms) आदि का व्यापक प्रयोग हुआ है। अध्यात्मविषयक विवेचनों में भी अपने तर्कों की सुसंगता सिद्ध करने हेतु गणितीय प्रक्रियाओं का प्रयोग किया गया है। गणितीय सिद्धान्तों का पल्लवन अथवा स्थापना जैनाचार्यों का साध्य नहीं रहा, वे साधन रूप में जरूर प्रयुक्त हुए हैं किन्तु गणित उसमें ऐसी रचपच गई कि तुलसी प्रज्ञा अंक 140 64 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524636
Book TitleTulsi Prajna 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages100
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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