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________________ जाती है । मृत शरीर की हड्डी की अथवा जीवित शरीर से बाहर निकाली गई हड्डी को चाहे हम कितना ही समीप रख दें, वह जुड़ नहीं पाती है। इसी प्रकार प्राणी के शरीर में परिणत लोह आदि धातुएं अथवा प्राणी के शरीर का जलीय तत्त्व अथवा प्राणी शरीर का वायु तत्त्व या प्राणी शरीर का अग्नि तत्त्व - ये सब तब तक जीवित हैं जब तक जीव उस शरीर को छोड़ नहीं देता है। प्रत्येक प्राणी के शरीर में पृथ्वी तत्त्व, अप्तत्त्व, अग्नितत्त्व और वायुतत्त्व - ये चारों तत्त्व होते हैं किन्तु जब तक ये चारों तत्त्व उस शरीर के अंगीभूत हैं उन्हें जीवित ही मानना होगा। संक्षेप में कहें तो किसी भी प्राणी के चाहे वह स्थूल हो या सूक्ष्म, उसके शरीर रूप में परिणत पृथ्वीतत्त्व, अपूतत्त्व, अग्नितत्त्व और वायुतत्त्व- ये सजीव हैं, यह मान्यता तर्कसंगत और विज्ञानसम्मत लगती है। कोई भी जीवित शरीर अपने अस्तित्त्व को इन चारों तत्त्वों के अभाव में नहीं रख सकता है। जीव जब तक संसार में है वह शरीरयुक्त है और जीवों के जो भी जीवित शरीर हैं वे कहीं न कहीं इन चारों तत्त्वों से ही बने हैं, अतः जीवित शरीर में उपस्थित इन चारों तत्त्वों को सजीव मानना ही होगा। मेरी दृष्टि में जैन दार्शनिकों ने पृथ्वी आदि के साथ जो काय शब्द का प्रयोग किया है, वह इसी अर्थ को द्योतित करता है कि जीवित शरीर में परिणत हुए पृथ्वी आदि महाभूत स्वयं जीवित यह बात अलग है कि पृथ्वी आदि चारों तत्त्व शरीर में किस रूप में और कितनी मात्रा में अपना अस्तित्त्व रख रहे हैं जैसे किसी प्राणी का शरीर रुधिर आदि से युक्त होता है तो किसी के शरीर में रुधिर आदि की स्थिति नहीं पाई जाती है किन्तु उनमें पृथ्वी, अपू, अग्नि और वायु- ये चारों तत्त्व होते हैं, यह ध्यान रखने योग्य है कि जहाँ भी सजीव शरीर है और वह जिन तत्त्वों से बना है, वे तत्त्व भी सजीव शरीर के रूप में जीवित ही हैं, मृत नहीं। पृथ्वी, अपू, वायु और अग्नि इन चार का ग्रहण और इन चारों का शस्त्र रूप में प्रयोग कोई भी प्राणी अपने अस्तित्त्व के लिए ही करता है आचारांग सूत्र में कहा गया है कि 'इमस्सचैवजीविच्चाए' अर्थात् ये जीवन के लिए हैं। इनका ग्रहण और इनका शस्त्र रूप में प्रयोग और इनकी हिंसा यह सब शरीर से सम्बन्धित है और जो जीवित शरीर से सम्बन्धित क्रियाएं हैं वे निर्जीव या मृत कैसे कही जा सकती है। इस समस्त चर्चा के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि पृथ्वी, पानी, वायु और अग्नि- ये चारों तत्त्व जब तक किसी जीवित शरीर रूप में हैं तो वे सजीव हैं। उदाहरण के रूप में मानव शरीर में चूना आदि मिट्टी, चूना, लोहा, सोना आदि तत्त्व सजीव रूप में ही पाये जाते हैं, इसी प्रकार मानव शरीर में जो वायु तत्त्व अथवा अग्नि (उठाना) तत्त्व है वह भी मृत नहीं माना जा सकता, अतः यह स्वतः सिद्ध है कि किसी भी जीव के शरीर के रूप में परिणत पृथ्वी, जल, वायु और अनि सजीव ही हैं। ही तत्त्व जब किसी जीव के त्यक्त शरीर में होते हैं तो वे निर्जीव माने जाते हैं। यही कारण है कि जैन दर्शन में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को सजीव और निर्जीव दोनों ही रूपों में स्वीकार तुलसी प्रज्ञा जुलाई-सितम्बर, 2008 Jain Education International For Private & Personal Use Only 59 www.jainelibrary.org
SR No.524636
Book TitleTulsi Prajna 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages100
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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