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अतः प्रस्तुत आलेख में हमारी चर्चा का मुख्य विषय - वनस्पति को छोड़कर शेष पृथ्वी, अप्, अग्नि और वायु -इन चार के सन्दर्भ में ही होगा।
पृथ्वी, अप् (जल), वायु, अग्नि- ये चार जैन आगम, आचारांग, उत्तराध्ययन और दशवैकालिक में सजीव कहे गये हैं और इनका वर्गीकरण भी जीवों के वर्गीकरण के सन्दर्भ में ही हुआ है। प्रस्तुत आलेख में हम आगे विज्ञान की दृष्टि से यह सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे कि पृथ्वी
आदि यदि सजीव है तो वे कैसे और किस रूप में सजीव हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आचारांग के प्रथम श्रुत स्कन्ध के प्रथम अध्याय के साथ-साथ दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि में जैन आचार्यों ने षट्जीवनिकाय के अन्तर्गत पृथ्वी आदि को सजीव बतलाने की दृष्टि से उसके साथ कायिक शब्द का प्रयोग किया, यथा पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव, वायुकायिक जीव, अग्निकायिक जीव आदि। अतः सबसे प्रथम यह समझ लेना आवश्यक है कि इनमें जीवत्व की सिद्धि इनके कायिकत्व अर्थात् जीवित शरीर के आधार पर ही की जा सकती है। यद्यपि यहाँ यह प्रश्न खड़ा किया जा सकता है कि काय शब्द तो जैन आचार्यो के द्वारा जीवों के अतिरिक्त धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, आकाशास्तिकाय आदि अजीव द्रव्यों के साथ भी देखा जाता है। अतः पृथ्वीकाय आदि में काय शब्द जीवत्व का वाचक नहीं हो सकता है। जैसी कि परम्परागत मान्यता है, काय शब्द विस्तार, प्रसार आदि के अर्थ में प्रसिद्ध हैं जिनका आकाश में भी कोई विस्तार या प्रसार है वे जैन दर्शन में काय शब्द से वाच्य किये गये हैं। पृथ्वी, अग्नि आदि में भी काय शब्द विस्तार का सूचक है, जीवत्व का नहीं। जैन परम्परा में जिनका भी कोई विस्तार देखा जाता है उनको काय कहते हैं। पृथ्वी आदि तत्त्व भी आकाश के समान विस्तारयुक्त होने से पृथ्वीकाय आदि के रूप में प्रयुक्त हुए हैं, अतः इससे उनके सजीवत्व की पुष्टि नहीं होती है।
किन्तु 'काय' शब्द का एक अर्थ शरीर भी है। इस सन्दर्भ में गहराई में जाना होगा। अजीव द्रव्यों के सन्दर्भ में जहाँ काय शब्द का प्रयोग हुआ है वहाँ निश्चय ही उसका अर्थ विस्तरित द्रव्य है, किन्तु जैनदर्शन में काय के तीन प्रकार माने गये हैं :- (1) सचित्त (2) अचित्त और (3) मिश्र, अतः काय शब्द सजीव और अजीव दोनों प्रकार के द्रव्यों के लिए भी प्रयुक्त होते हैं। जैसे जीवास्तिकाय सजीव के लिए और पुद्गलास्तिकाय अजीव के लिए है, यह मानने में भी जैनों को काई आपत्ति नहीं है कि काय निर्जीव भी होती है किन्तु वे यह भी मानते हैं कि काय सचित्त अर्थात् सजीव भी हो सकता है जैसे जीवित प्राणी का शरीर भी सजीव होता है। इसलिए जैन दार्शनिकों ने षट्जीव निकायों की चर्चा करते हुए 'पृथ्वीकायिक जीव' ऐसे व्यापक शब्द का प्रयोग किया है। जब हम षट्जीव निकाय शब्द प्रयोग करते हैं तो उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ यह प्रयोग सचित्त या सजीव जीवों के लिए ही है। दशवैकालिक सूत्र के षट्जीव निकाय अध्ययन में स्पष्ट रूप से पृथ्वीकायिक जीव' ऐसा प्रयोग भी देखा जाता है, साथ ही उसमें ‘पुढवीचित्तमन्तमक्खाया तुलसी प्रज्ञा जुलाई-सितम्बर, 2008
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