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________________ उदाहरणतर पद्यों की संख्या कुल मिलाकर 27 है। इनमें उदाहरणभूत 23 पद्यों को मिला देने से पूर्वोक्त 50 संख्या पूरी हो जाती है। 'पूज्यानाम्' करके दिया हुआ एक श्लोक इनसे अतिरिक्त है। पद्यों के साथ कोष्ठक में दी गई पृष्ठ संख्या आनन्दाश्रम ग्रन्थमाला - संस्करण के अनुसार है। संकेतगत पद्यों का विवरण ग्रन्थारम्भे- सर्वज्ञवदनाम्भोजविलासकलहंसिकाम् । विशुद्धपक्षद्वितयां देवीं वाचमुपास्महे ॥1 ॥ ( पृ० 1 ) सर्वज्ञ (जिन या ब्रह्मा) के मुखकमल में विलसित होने वाली (नित्यानित्य रूप) दो निर्मल पक्षों वाली राजहंसी रूप वाग्देवी की हम उपासना करते हैं । इस सरस्वती - वन्दन के उपरान्त संकेतकार लिखते हैं कि सरस्वती सभी की आराध्या है, परस्पर विरोध होने के उपरान्त भी सभी वादी इसकी स्तुति में एकमत हैं । यहाँ संकेतकार का भाव यह है कि सरस्वती एक सम्प्रदायनिरपेक्ष विश्ववन्द्या देवी है। इसके उपरान्त संकेतकार अपने को पूर्व ग्रन्थकारों का ऋणी मानते हुए अपनी विनयशीलता इस प्रकार प्रकट करते हैं नानाग्रन्थ- -चतुष्पथेषु निभृतीभूयोच्चयं कुर्वता, प्राप्तैरर्थकणैः कियद्भिरभितः प्रज्ञर्धिशून्यात्मना । सर्वालङ्कृतिभालभूषणमणी काव्यप्रकाशे मया, वैधेयेन विधीयते कथमहो संकेतकृत्साहसम् ॥ 2 ॥ (पृ. 1) बुद्धि-समृद्धि से शून्य मुझ वैधेय = जड़मति (माणिक्यचन्द्र) द्वारा नाना ग्रन्थरूपी चौराहों से चुपके से चुनकर प्राप्त किए कुछ अर्थकणों की सहायता से सर्व अलंकार-ग्रन्थों में शिरोमणिभूत काव्यप्रकाश पर देखे, कैसे संकेत टीका की रचना का साहस किया जा रहा है। इस पद्य में ग्रन्थकार की निरभिमानिता व नम्रता विशेष रूप से प्रतीत हो रही है। न प्राग्ग्रन्थकृतां यशोऽधिगतये नापि ज्ञताख्यातये, स्फूर्जद्बुद्धिजुषां न चापि विदुषां सत्प्रीतिविस्फीतये। प्रक्रान्तोऽयमुपक्रमः खलु मया किं तर्ह्यगर्ह्यक्रम, स्वस्यानुस्मृतये जड़ोपकृतये चेतोविनोदाय च ॥3॥ ( पृ0 1 ) न तो प्राचीन ग्रन्थकारों का यश पाने के लिए और न ही विद्वत्ता दिखाने के लिए तथा न ही प्रतिभाशाली लोगों को ( चमत्कृत कर ) प्रसन्न करने के लिए यह (संकेतरचना - रूप) उपक्रम प्रारम्भ किया है, किन्तु अपनी अनुस्मृति व मन्दजनों की उपकृति करने के लिए ही यह उपक्रम किया है। इस पद्य में विनम्रता व निरभिमानिता के साथ व्याख्या-रचना का प्रयोजन भी बताया है। अतुल तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008 Jain Education International For Private & Personal Use Only 77 www.jainelibrary.org
SR No.524635
Book TitleTulsi Prajna 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages100
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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