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अभी सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता की आवश्यकता बतायी। नागरिक संहिता के नियम लौकिक हैं, वे देश काल के अनुरूप बदले जा सकते हैं किन्तु कुछ लोग पति-पत्नी के लौकिक सम्बन्ध को अलौकिक रूप देकर उस सम्बन्ध के नियमों को उन धर्मग्रन्थों के आधार पर निर्धारित करना चाहते हैं जो धर्मग्रन्थ आज से कई शताब्दियों पूर्व बने थे। फलतः ऐसे लोग रूढ़िवाद के समर्थक बन जाते हैं और बदलते समय के लाभ से वंचित रह जाते हैं। मनु की व्यवस्था लौकिक- आज मनुवाद को एक अपशब्द के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा है। भारतीय समाज में मनु एक प्रतिष्ठित पुरुष के रूप में आदर के पात्र रहे हैं। उनकी मनुस्मृति हमें उपलब्ध है। यद्यपि मनुस्मृति का निर्माण मनु ने नहीं किया तथापि उसके विधान मनुसम्मत माने जाते हैं। मनु का कट्टर से कट्टर भक्त भी आज मनुस्मृति के समस्त विधानों का पालन करने का समर्थन नहीं कर सकता। यदि हम यह मान लें कि मनु की व्यवस्था लौकिक है तो कोई कठिनाई नहीं आयेगी, क्योंकि देश-काल के अनुसार उसमें परिवर्तन किये जा सकेंगे किन्तु यदि हम मनु के विधान को दैवी तथा सनातन मान लें तो फिर यह संकट उपस्थित हो जायेगा कि मनु के वे विधान भी हमें मानने होंगे जो युगानुरूप नहीं हैं। निष्कर्ष यह हुआ कि आत्मधर्म ही शाश्वत हो सकता है, समाज-धर्म नहीं। स्वयं मनु ने कृत, त्रेता, द्वापर और कलि के धर्म भिन्नभिन्न माने हैं। शाश्वत मूल्यों का महत्त्व- आज परिवर्तन की बहुत चर्चा है। कहा जाता है कि समय बहुत तेजी से बदल रहा है। मूल्य भी बदल रहे हैं। इस परिवर्तन के चक्रवात में आत्मधर्म के वे घटक भी उड़ रहे हैं जो शाश्वत हैं। यह आत्मधर्म को भी समाज-धर्म मान लेने का दुष्परिणाम है। भौतिकवादी आत्मा जैसे शाश्वत तत्त्व को मानता ही नहीं, अतः उसके लिये आत्मधर्म जैसा कोई शाश्वत तत्त्व भी नहीं है। वह आत्मधर्म को भी देश, काल, परिस्थितिजन्य ही मानता है। इसलिए उसके लिये कोई मूल्य शाश्वत नहीं है। आज ऐसे लोगों की कमी नहीं जो हिंसा को ही धर्म मान रहे हैं। आतंकवाद उन्हीं लोगों की देन है। आचार्य भिक्षु को यह कहा जा रहा था कि इस युग में (पंचम काल में) शुद्ध धर्म का पालन नहीं हो सकता। किन्तु उन्होंने शाश्वत तत्त्वों की परिवर्तनीयता स्वीकार नहीं की। पंथनिरपेक्ष राज्य- यूरोप में एक लहर आयी कि राज्य को पन्थनिरपेक्ष होना चाहिए। एक समय था कि सारा यूरोप धर्मगुरु पोप की आज्ञा के अनुसार संचालित होता था। कुछ शासकों ने अनुभव किया कि पोप के सभी आदेश युक्तियुक्त नहीं हैं। उन्होंने विद्रोह किया और पोप के नियंत्रण से मुक्त हो गये। यह पन्थनिरपेक्ष का प्रारम्भ बिन्दु था। धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त के आने के पहले ही आचार्य भिक्षु लौकिक व्यवस्था को धर्मव्यवस्था से भिन्न मानने की घोषणा कर चुके थे।
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008
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