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________________ अहिंसा उसे शोषण, अन्याय अथवा विषमता के प्रति उदासीन नहीं बनाती। वह अत्यन्त संवेदनशील होता है। किन्तु वह अन्याय का प्रतिकार बल प्रयोग से नहीं करता। उसकी दृष्टि में अन्याय का प्रतिकार करना आवश्यक है। वह सहिष्णुता के साथ ही किया जा सकता है। अन्याय के प्रतिकार का निर्दोष उपाय है सहिष्णुता । 26 अहिंसक प्रतिकार- हमारे अपने समय में महात्मा गांधी ने अन्याय के प्रतिकार के लिए अहिंसक प्रणाली का सफल प्रयोग किया। एक अंग्रेज ने महात्मा गांधी की समाधि पर यह उद्गार प्रकट किये कि महात्मा गांधी का भारतीयों पर तो यह उपकार है ही कि उन्होंने पराधीनता से मुक्त कर दिया किन्तु हम अंग्रेजों पर उससे भी बड़ा उनका यह उपकार है कि उन्होंने हमें यह बताया कि किसी को पराधीन बनाना बुरा है। यह हृदय परिवर्तन द्वारा अन्याय के शमन का उदाहरण है। हृदय परिवर्तन द्वारा केवल उसी का उपकार नहीं होता जिस पर अन्याय होता है। वह तो अन्याय से मुक्त होता ही है - उपकार उसका भी होता है जो अन्याय कर रहा था, क्योंकि वह अन्याय करना छोड़ देता है। आततायी ने अन्याय करना छोड़ दिया, मूल्यवान यह है। निर्बल आततायी के अन्याय से बच गया - यह आनुषंगिक फल है । मुख्य फल नहीं। समाजधर्म हिंसा की अपरिहार्यता और आत्मधर्म में हिंसा की सावद्यता- इन दो परिस्थितियों के बीच में अहिंसा की स्थिति को स्पष्ट करना है। अहिंसा का व्यावहारिक स्वरूप- प्रथम कदम है - जो हिंसा अनावश्यक है, उसे छोड़ा जाये? व्यक्ति आवश्यक हिंसा को नहीं छोड सकता, जीवन की वास्तविक जरूरतों को कम नहीं कर सकता किन्तु अनावश्यक हिंसा से बच सकता है, कृत्रिम जरूरतों का संयम कर सकता है । 27 गृहस्थ अपने स्वार्थ के लिए हिंसा करता है पर उसे कम से कम अनर्थ पाप से अवश्य बचना चाहिये। 28 परिग्रह अधिक हो तो अधिक हिंसा आवश्यक प्रतीत होती है। परिग्रह कम हो जाये तो आवश्यक प्रतीत होने वाली हिंसा भी अनावश्यक होती चली जाती है। क्रम यह है कि ज्यों-ज्यों आत्मरमण बढ़ता है, परिग्रह की इच्छा न्यून होती जाती है और ज्यों-ज्यों परिग्रह की इच्छा न्यून होती है, त्यों-त्यों हिंसा की आवश्यकता कम होती जाती है। दूसरी ओर ज्यों-ज्यों हिंसा की आवश्यकता और परिग्रह की इच्छा कम होती है, त्यों-त्यों आत्मरमण की सघनता बढ़ती है। यह हिंसा से अहिंसा की ओर बढने वाली सच्ची अहिंसा - यात्रा है। अहिंसा-य - यात्रा- - ऐतिहासिक रूप में अहिंसा की यात्रा प्रारंभ हुई यहां से किसी को कष्ट नहीं ना किन्तु उसका समापन हुआ इस बिन्दु पर कि राग द्वेष नही करना -अहिंसा की परिभाषा का उत्तरोत्तर बहुत विकास हुआ है। किसी जीव को मत मारो - यह अहिंसा है। यहां से अहिंसा का सिद्धान्त चला और विकसित होते-होते अनेक गइराइयों को पार कर वहां पहुंच गया कि रागद्वेष को उत्पन्न न करना अहिंसा है। इस अर्थ में अहिंसा, सामायिक और ध्यान एक हो जाते हैं। तुलसी प्रज्ञा अंक 139 68 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524635
Book TitleTulsi Prajna 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages100
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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