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________________ परोपकार का साधन- परोपकार की दूसरी सीमा यह है कि जिस साधन से हम परोपकार करते हैं वह साधन शुद्ध होना चाहिए। क्या हम किसी की निर्धनता मिटाने के लिए किसी दूसरे का धन चुराकर निर्धन को दे सकते हैं? अपरिहार्य होने पर ऐसा करना पड़ जाये - यह अलग बात है किन्तु ऐसा कने को हम पुण्य कैसे मान सकते हैं? परोपकार की इन दो सीमाओं के अन्तर्गत ही हमें अहिंसा के विधायक रूप का निर्णय करना चाहिए। शरीर का पोषण-शरीर एक साधन है - धर्म का भी और अधर्म का भी। यदि हम भोग में प्रवृत्त रहते हैं तो हमारा शरीर अधर्म का साधन है। ऐसे शरीर का पोषण परोक्षतः अधर्म का ही पोषण है। यदि हम साधना में प्रवृत्त रहते हैं तो हमारा शरीर धर्म का साधन है। ऐसे शरीर का पोषण धर्म का पोषण है। इस विवेक के बिना शरीर-मात्र के पोषण को धर्म नहीं कहा जा सकता। सहयोग का प्रश्न- प्रश्न है उसका जो अंशतः धर्म में तथा अंशतः भोग में प्रवृत्त है। सामाजिक प्राणी की यही स्थिति है। समाज का आधार परस्परिक सहयोग है। बिना परस्परिकता के समाज का निर्माण ही नहीं हो सकता। सामान्य व्यक्ति व्यक्ति भी है और समाज का घटक भी है। व्यक्ति के रूप में वह आत्मधर्म का पालन करता है और समाज का घटक होने के नाते वह समाज धर्म का पालन करता है। व्यक्ति के प्रति उसका एक दायित्व है, समष्टि के प्रति उसका दूसरा दायित्व है। उसे दोनों दायित्व निभाने हैं। इस नाते अहिंसा के भी दो रूप हो जाते हैंस्वाभिमुखी अहिंसा और समाजोमुखी अहिंसा। 'क्रोध, अहंकार, भय, घृणा, द्वेष - इन सबको कम करना स्वाभिमुखी अहिंसा है। समाज के किसी व्यक्ति का शोषण नहीं करना, पीड़ा नहीं पहुंचाना, हीन भावना पैदा नहीं करना आदि-आदि समाजाभिमुखी अहिंसा है। सच्चा सहयोग - समाजाभिमुखी अहिंसा का यह एक पक्ष है। दूसरा पक्ष है दूसरों के आत्मकल्याण में सहायक होना। आचार्य भिक्षु इस पारमार्थिक आत्मा परोपकार की अवधारणा को बहुत स्पष्ट शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं - अज्ञानी रो ग्यानी की याँ थकाँ, हुवो निश्चे पेला रो उधार हो, कियो मिथ्याती रो समकती, तिण उतरीयो भव पार हो। असंजतीने कीयो संजती, ते तो मोष तणाँ दलाल हो, ग्यान दरसणचरित्त ने तप, याँरो करे कोई उपगार हो।। आपति रे पेलो उबरे, दो याँ रो खेवो पार हो। जहां भौतिक पदार्थों को देकर किसी की सहायता करने का प्रश्न है। हमें पात्र-कुपात्र का विचार करना होता है किन्तु ज्ञान अथवा चारित्र की प्रेरणा सबको बिना किसी भेद-भाव के दी जा सकती है। कारण यह है कि कुपात्र भौतिक पदार्थ का दुरुपयोग कर सकता है किन्तु ज्ञान अथवा चारित्र का दुरुपयोग करना संभव नहीं है। तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008 - 65 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524635
Book TitleTulsi Prajna 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages100
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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