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________________ आचार्य भिक्षु का दर्शन : अहिंसा के विशेष सन्दर्भ में प्रो. दयानन्द भार्गव आचार्य भिक्षु एक जैन साधु थे। इस नाते जैन सम्प्रदाय में तो लोग उन्हें न्यूनाधिक रूप में जानते हैं किन्तु जैन सम्प्रदाय से बाहर उन्हें कम ही लोग जानते हैं। वस्तुस्थिति यह है कि वे एक प्रखर चिन्तक थे । उनका चिन्तन मानव-मात्र के कल्याण में सहायक हो सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि उनके चिन्तन को सम्प्रदाय से मुक्त करके देखा जाये। उदाहरणतः उन्होंने इस बात पर बल दिया कि गलत रास्ते पर चलने वाले की सहायता करने वाला भी गलती करता है; सहायता करने से पहले यह विचार कर लेना आवश्यक है कि जिसकी हम सहायता करना चाहते हैं वह सहायता का पात्र भी है या नहीं? उन्होंने कहा कि एक के हित पर चोट करते हुए दूसरे की सहायता करना उचित नहीं है। इसी प्रकार उन्होंने बताया कि शुद्ध लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अशुद्ध साधन नहीं बरतने चाहिए। अध्यात्म के नियम शाश्वत हैं किन्तु सामाजिक नियम सामयिक होते हैं और देशकालानुसार बदले जा सकते हैं। इस प्रकार के अनेक ऐसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन उन्होंने किया जिनका सम्बन्ध किसी सम्प्रदाय से नहीं है अपितु जो सर्वजनोपयोगी हैं। इसलिए उन सिद्धान्तों का अनुशीलन आवश्यक है। आचार्य भिक्षु का जीवन परिचय- आचार्य भिक्षु का जन्म राजस्थान के एक अल्प परिचित ग्राम कंटालिया में 1 जुलाई 1726 ई. को हुआ। यह ग्राम तब जोधपुर राज्य के अन्तर्गत आता था। वे ओसवाल जाति के थे और उनका गोत्र संकलेचा था। उनके पूर्वज जैन धर्म स्वीकार करने के पहले चौहान राजपूत थे। आचार्य भिक्षु के पिता का नाम शाह बल्लूजी तथा माता का नाम दीपांजी था। आचार्य भिक्षु ने उस समय की प्रथानुसार महाजनी हिसाब-किताब की शिक्षा प्राप्त की। वे व्यवसायकुशल थे किन्तु उनका मन संसार में नहीं लगा। उन्होंने अपनी पत्नी सहित ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया और एकान्तर उपवास करने लगे। इससे पहले कि वे दीक्षा ले पाते, 56 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524635
Book TitleTulsi Prajna 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages100
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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