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आयारो की अर्हत् वाणी
कोऽहं ? अरे ! कहाँ से आया ?
और कहाँ जाऊँगा ?
नहीं ज्ञान यह सबको होता,
कैसी स्थिति पाऊंगा?
स्वयं स्वयं की जाति - स्मृति से, अथवा ज्ञानी के मुख से सुन,
ज्ञात हुआ संसरणशील मैं,
सुख का, दुःख का वरणशील मैं, दिग् दिगन्त संचरणशील मैं, मैं उपपात-मरणधर्मा हूँ, कृतकर्मा हूँ, मैं अतीत में था, अब हूँ,
भविष्य में बना रहूँगा,
सोऽहं सोऽहं का संगानी
वही प्रत्यभिज्ञा - सन्धानी
आयारो की अर्हत्-वाणी ॥
अनुशास्ता आचार्य तुलसी
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