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________________ 1. वीर्यसयोग सद्व्यता-वीर्य-वीर्यान्तर क्षयजनित शक्ति। योग-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति। सद्व्य-औदारिक वर्गणा के पुद्गल -ये औदारिक शरीर प्रयोग बंध के निमित्त बनते हैं। 2. प्रमाद-यह भी औदारिक शरीर प्रयोग-बंध का निमित्त है। ____3. कर्मयोग, भव और आयुष्य सापेक्ष औदारिक शरीर प्रयोग नाम कर्म का उदयउदयवर्ती कर्म, काय आदि की प्रवृत्ति, अनुभूयमान मनुष्य आदि का भाव, उदयवर्ती मनुष्य आदि का आयुष्य - इन सबसे सापेक्ष होकर औदारिक शरीर प्रयोग नाम-कर्म औदारिक शरीर के प्रयोग का संपादन करता है। औदारिक शरीर की रचना का मुख्य हेतु 'नाम' कर्म है। वीर्य, योग, पुद्गल आदि सब उसके सहकारी कारण हैं। षट्खण्डागम में शरीर बंध की गणना नोकर्म की कोटि में की गई है।47 औदारिक शरीर प्रयोग बंध की दो अवस्थाएं होती हैं - 1. देश बंध, 2. सर्व बंधा एक जीव पूर्व शरीर का परित्याग कर नए शरीर का निर्माण करता है। निर्माण के प्रथम समय में वह शरीर के योग्य पुद्गलों का केवल ग्रहण करता है, इसलिए वह सर्वबधं है। इसका तात्पर्यार्थ है-जीवन यात्रा के लिए आवश्यक शक्तियों का निर्माण। वैक्रिय शरीर के निर्माण के पश्चात् पुनः औदारिक शरीर में लौटने का पहला समय भी सर्वबंध का समय होता है।48 द्वितीय आदि समय में ग्रहण के साथ विसर्जन भी करता है। उस अवस्था में केवल बंध (ग्रहण) नहीं है इसलिए वह देश बंध है। इसका तात्पर्यार्थ है-प्रथम समय में निर्मित शक्तियों के लिए आवश्यक साधनों का ग्रहण और अनावश्यक का उत्सर्जन। अभयदेवसरि ने अनूप के दृष्टान्त द्वारा इसे समझाया है। तेल या घी से भरी हई कढ़ाई में प्रक्षिप्त पूआ' पहले समय में घी अथवा तेल को ग्रहण करता है, शेष क्षणों में ग्रहण और विसर्जन दोनों करता है।49 वैशेषिक दर्शन से सृष्टि की उत्पत्ति पार्थिव, जलीय, तैजस और वायवीय परमाणुओं के आधार पर मानी है। उसके अनुसार परमाणु कूटस्थ नित्य है। जैन दर्शन में परमाणु की आठ वर्गणाएं बतलाई गई हैं1. औदारिक वर्गणा 2. वैक्रिय वर्गणा 3. आहारक वर्गणा 4. तैजस वर्गणा 5. कार्मण वर्गणा 6. श्वासोच्छ्रास वर्गणा 7. भाषा वर्गणा 8. मनो वर्गणा ये वर्गणाएं परिणामी नित्य हैं । औदारिक वर्गणा के परमाणु तैजस वर्गणा के रूप में परिणत हो सकते हैं और तैजस वर्गणा के परमाणु औदारिक वर्गणा के रूप में परिणत हो सकते हैं। सष्टिवाद की व्याख्या परिणामी-नित्यवाद के आधार पर की जा सकती है। इन वर्गणाओं से तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008 - - 53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524635
Book TitleTulsi Prajna 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages100
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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