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________________ को समझाने के लिए जतुकाष्ठ का उदाहरण दिया है। 2. सिद्धसेनगणि ने भी इस उदाहरण का प्रयोग किया है। 3. जीवाजीव-विषयक प्रायोगिक के दो प्रकार होते हैं - 1. कर्म-बंध-ज्ञानावरण आदि का बंध। 2. नोकर्म बंध-औदारिक आदि शरीर का निर्माण। अभयदेवसूरि ने मिश्र को समझाने के लिए दो उदाहरण प्रस्तुत किए हैं - 1. मुक्त जीव का शरीर। 2. औदारिक आदि वर्गणाओं का शरीर रूप में परिणमन। शरीर का निर्माण जीव ने किया है, इसलिए वह जीव के प्रयोग से परिणत द्रव्य है। स्वभाव से उसका रूपान्तरण होता है, इसलिए वह मिश्र परिणत द्रव्य है।औदारिक आदि वर्गणा स्वभाव से निष्पन्न हैं। जीव के प्रयोग से वे शरीर रूप में परिणत होती हैं। इसमें भी जीव का प्रयोग और स्वभाव दोनों का योग है। उन्होंने स्वयं प्रश्न प्रस्तुत किया - प्रयोग परिणाम और मिश्र परिणाम में क्या अन्तर है? उन्होंने समाधान में कहा - प्रयोग परिणाम में भी स्वभाव परिणाम है, किन्तु यह विवक्षित नहीं है।11 सिद्धसेनगणि ने भी, 'मिश्र परिणाम में प्रयोग और स्वभाव दोनों प्रधान रूप से विवक्षित है' - इसका उल्लेख किया है।12 उक्त दोनों व्याख्याओं की संगति कार्य-कारण के संदर्भ में ही बिठायी जा सकती है। मिश्र परिणाम के उदाहरण हैं - घट और स्तम्भ। घट के निर्माण में मनुष्य का प्रयत्न है और मिट्टी में घट बनने का स्वभाव है, इसलिए घट मिश्र परिणत द्रव्य है। इसकी तुलना वैशेषिक सम्मत समवायिकारण से की जा सकती है। प्रयोग परिणाम में किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं होती। उसका निर्माण जीव के आंतरिक प्रयत्न से ही होता है। मिश्र परिणाम में जीव के प्रयत्न के साथ निमित्त कारण का भी योग होता है। स्वभाव परिणाम जीव के प्रयत्न और निमित्त दोनों से निरपेक्ष होता है। भगवती में प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्यों का वर्णन विस्तार से किया गया है। जैन दर्शन अनेकान्तवादी है, इसलिए उसे सापेक्ष दृष्टि से पुरुषार्थवाद और स्वभाववाद दोनों मान्य हैं। प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्य का पहला उदाहरण है-एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत द्रव्य।" इसी प्रकार मिश्र परिणत पुद्गल द्रव्य का उदाहरण भी एकेन्द्रिय मिश्र परिणत द्रव्य है, किन्तु दोनों का स्वरूप एक नहीं है। जीव ने औदारिक वर्गणा के जिन पुद्गलों से औदारिक शरीर की रचना की है, वह पुद्गल एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत है। 44 - तुलसी प्रज्ञा अंक 139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524635
Book TitleTulsi Prajna 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages100
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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