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________________ निशीथ सूत्र एवं उसके व्याख्या साहित्य को पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है कि नूतन, किनारीयुक्त बहुमूल्य एवं चटकरंग वाले वस्त्र पहनना उस समय विशिष्ट गौरव एवं प्रतिष्ठा का सूचक माना जाता था। निशीथसूत्र में पैंतीस प्रकार के बहुमूल्य एवं वैविध्यपूर्ण वस्त्रों का उल्लेख हुआ है। जिनके बारे में व्याख्या ग्रन्थों एवं तत्कालीन अन्य साहित्य-वैदिक, बौद्ध आदि में पढ़कर एक सुखद आश्चर्य एवं गौरव की अनुभूति होती है कि प्राचीनकाल में ज्ञान एवं कला का कितना विकास हो गया था 1. तोसलि देश में बकरों के खुर में लगी हुई शैवाल से 'आय' नामक वस्त्र बनाए जाते। 2. नीलवर्णी कपास से 'काय' वस्त्र बनते। 3. जो वस्त्र पहनते समय कड़कड़ शब्द करते, वे गज्जफल वस्त्र कहलाते। 4. सोने को पिघला कर उससे रंगे हुए वस्त्र कनक वस्त्र कहलाते। 5-6. कनक कान्त और कनकपट्ट वस्त्र सुनहरी किनारियों वाले होते थे। जो वस्त्र सुनहरे धागे से बेलबूटों वाले होते, वे कनकस्पृष्ट और कनकखचित वस्त्र कहलाते थे।28 इसी प्रकार चर्म से बने वस्त्रों से भी-कृष्णमृगाजिन, नीलमृगाजिन, गौरमृगाजिन, उद्दवस्त्र आदि अनेक प्रकार प्राचीन काल में प्रचलित थे। पट्ट, मलय, अंशुक, चीनांशुक कृमिराग आदि विविध प्रकार से बनने वाले रेशमी वस्त्र हैं, जो प्राचीनकाल में भिन्न-भिन्न देशों में बनाए जाते थे। चमड़ा-उद्योग निशीथचूर्णि में स्थान-स्थान पर पदकर, पंदकार, चर्मकार आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। ये लोग प्रायः गांवों से बाहर रहते थे। इनका धंधा प्रशस्त नहीं माना जाता था। ये दृति (मशक), चर्मेष्टक, जूते, चमड़े की मालाएँ, चर्मवस्त्र, कृत्ति (बिछाने का चर्मखण्ड) तथा चर्मपात्र बनाते। उस समय जूतों-क्रमणिका या तलिका के अनेक प्रकार प्रचलित थे, जैसे-एक तले के जूते, दो तले के जूते, आधे पैर के जूते (अर्धखल्लक), पूरे पैर के जूते (समत्तखल्लक), अंगुलियों एवं पैरों को ऊपर से ढ़कने वाले जूते (वगुरी), खपुसा, कोशक आदि। निशीथचूर्णि में इनका संक्षिप्त एवं सारगर्भित विवरण उपलब्ध होता है। 30 मुनि भी आपवादिक परिस्थितियों में कुछ चमड़े के उपकरणों का उपयोग करते थे, जैसे-गोफण, वन, कृत्ति, सिक्कक (छींका), कापोतिका आदि। माला निर्माण उद्योग प्राचीन काल में माला निर्माण का उद्योग भी प्रचुर मात्रा में प्रचलित था। लोग उत्सवों में अपने घरों आदि सजाने, बन्दनवार लगाने तथा स्वयं की विभूषा के लिए भी विविध प्रकार की तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008 - 47 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524634
Book TitleTulsi Prajna 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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