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________________ भाव चिकित्सा के लाभ जैन वाङ्मय में स्थान-स्थान पर उल्लेख मिलता है कि शिष्य गुरु के समक्ष अपनी स्खलना को प्रकट कर अहोभाव का अनुभव करता है। यहां तक कि एक आचार्य भी भाव-शोधि के लिए दूसरे आचार्य के पास जाता था। एक डॉक्टर अपनी चिकित्सा स्वयं नहीं करता वैसे ही एक आचार्य अपना शोधन स्वयं नहीं करते। दूसरे आचार्य के समक्ष शोधि के लिए जाते थे। बालक की तरह मद और माया से रहित होकर चिकित्सा (विकृत भावों का शल्योद्धार) करते थे।44 भाष्यकार ने कहा है कि भाव विशुद्धि करने से लघुता की वृद्धि, आह्लाद की उत्पत्ति, दोषों से निवृत्ति, ऋजुता की वृद्धि, आत्मा की शुद्धि, चारित्र विनय की प्राप्ति और निःशल्यता का विकास होता है। उत्तराध्ययन" सूत्र में आलोचना के संदर्भ में भाव चिकित्सा की चर्चा करते हुए कहा है- आंतरिक शल्यों की चिकित्सा होती है। ऋजुभाव का विकास होता है। तीव्रतर विकारों से दूर रहने की क्षमता व पूर्व संचित विकारों के संस्कारों का विलय होता है। - इस प्रकार प्रस्तुत ग्रंथ में आयुर्वेद, आयुर्विज्ञान व मनोचिकित्सा के महत्त्वपूर्ण सूत्रों का विवेचन है जिनके द्वारा मन, शरीर व भावों का शोधन कर आत्मा पर लगे कर्म रूपी रोग को दूर किया जा सकता है। सन्दर्भ ग्रंथ 1. निशीथ भाष्य, 6190 2. व्यवहारभाष्य,गाथा 4173 3. आवश्यकनियुक्ति 777 4. वही,665,मटी, पृ. 341 पद विभाग समाचारी छेदसूत्राणि 5. नि.भा. 6184/ चूर्णि, पृ. 253 6. दशवैकालिक 4/11 7. (क) दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति- वंदामिभद्दबाहुं,पाईणं चरिमसगलसुयनाणी। सुत्तस्स कारगमिसिं, दसासु कप्पे य ववहारो।। (ख) पंकभा 12.... स भवति दसकप्पववहारो। 8. व्यवहार भाष्यः एक अनुशीलन, पृ. 44 9. व्यवहार भाष्य, 949 10. व्यवहार भाष्य, 93 तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008 - - 41 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524634
Book TitleTulsi Prajna 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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