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जीवादि छहों द्रव्यों का अस्तित्व रूप (उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक) जो स्वात्मपरिणमन है, वह 'वर्तना' है। इस वर्तना में उपादान कारण तो तत्तद् द्रव्य है और उदासीन, अप्रेरक, निष्क्रिय कारण 'काल' द्रव्य है।68
'क्रिया' भी परिणाम, भाव या सत्ता का ही एक रूप है।69 द्रव्य का परिस्पन्दात्मक परिणमन उसकी ‘क्रिया' है, जबकि अपरिस्पन्दात्मक (पर्याय) मात्र ‘परिणाम' हैं। प्रदेश-चलनात्मक योग्यता का नाम ‘क्रिया' है और परिणमनशील योग्यता का नाम 'भाव' या परिणाम' है, किन्तु परिस्पन्दात्मक परिणमन मात्र जीव व पुद्गल-इन दोनों में ही होता है, अत: क्रियारूप योग्यता जीव व पुद्गल-इन दोनों में ही मानी गई है।'' जीववपुद्गल में भाव रूप योग्यता तथा क्रियारूप योग्यता दोनों हैं, किन्तु धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों में मात्र परिणमनशील योग्यता ही है। द्रव्यों के निष्क्रिय व सक्रिय-इन विभागों की पृष्ठभूमि में विचार करते हुए जैन दार्शनिकों ने देशान्तर-प्राप्ति का हेतुभूत जो पर्याय/परिणमन है, उसे क्रिया कहा है। उक्त परिस्पन्दात्मक क्रिया धर्म व अधर्म में नहीं है, इसलिए उन्हें निष्क्रिय माना गया है। वास्तव में परिणाम-लक्षण क्रिया तो धर्म-अधर्म आदि द्रव्यों में भी रहती है।
आचार्य विद्यानन्द के मत में परिणाम' भी क्रियारूप ही है-'परिणामलक्षणया क्रिया'।75 अत: इस दृष्टि से धर्म, अधर्म ही नहीं, अपितु कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं है जो क्रियारहित हो, क्योंकि परिणमन सभी द्रव्यों का स्वभावभूत धर्म है (सर्वस्य वस्तुनः परिणामित्वात्")। वस्तु में प्रतिक्षण उत्पाद आदि क्रिया यदि न हो तो वस्तु का वस्तुत्व ही निरस्त हो जाएगा। आचार्य विद्यानन्द के शब्दों में “भले ही धर्म, अधर्म,आकाश, काल-इन निष्क्रिय द्रव्यों में परिस्पन्दलक्षण क्रिया न हो तथापि प्रतिक्षण उत्पाद आदि ‘परिणतिरूप क्रिया' तो होती है, अन्यथा उनके अस्तित्व को ही नकारना होगा
इत्यपास्तं परिस्पन्द-क्रियायाः प्रतिषेधनात्।
उत्पादादिक्रियासिद्धेः, अन्यथा सत्त्वहानितः।। लोक का ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जिसका अस्तित्व तो हो किन्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप परिणति रूप क्रिया से रहित हो, यदि यह परिणति-क्रिया न हो तो वस्तु का वस्तुत्व ही संगत नहीं हो पाएगा। परिणतिरूप क्रिया से युक्त होने के कारण, वस्तुत: प्रत्येक द्रव्य सक्रिय है,78 और पर्यायार्थिक नय से प्रत्येक द्रव्य निष्क्रिय।' अगुरुलघुगुणकृत अर्थक्रिया
प्रत्येक पदार्थ में निहित अगुरुलघु' गुण व उसके अविभागी गुणांशों में प्रतिसमय होने वाली षड्विध हानि-वृद्धि का निरूपण भी यहां प्रासंगिक है। धर्म, अधर्म, आकाश आदि
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008
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