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वस्तुत: सत्ता और अर्थक्रिया का शाश्वत घनिष्ठ सम्बन्ध है। " वस्तु में उक्त त्रिलक्षणात्मकता मान जाये तो अर्थक्रिया नहीं हो सकती। 2 दूसरी तरफ जहां अर्थक्रिया नहीं, वहां 'सत्ता' भी नहीं है। दूसरे शब्दों में जो अर्थक्रियाकारी है, वही परमार्थतः 'सद्' या द्रव्य है।” इस दृष्टि से वस्तु का लक्षण 'अर्थक्रियाकारित्व' किया जाना भी जैन दार्शनिकों को अभीष्ट रहा है।
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जैन दार्शनिकों ने धर्म, अधर्म, आकाश व काल में भी उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक रूप त्रिलक्षण सत्ता के आधार पर स्व- परप्रत्यय उत्पाद व्यय रूप परिणति के रूप में 'अर्थक्रियाकारित्व' का प्रतिपादन किया है। 54
संक्षेप में उक्त अर्थक्रिया सक्रिय, निष्क्रिय, मूर्त, अमूर्त आदि समस्त अस्तित्वयुक्त पदार्थों में अनादि-निधन रूप से, सूक्ष्मतम निरवच्छिन्न आन्तरिक परिणति - परम्पराओं के रूप से प्रवर्तमान रहती है। दूसरे शब्दों में यह अर्थक्रिया पदार्थमात्र के अस्तित्व या सत्ता का अविनाभूत अंग है।
अनेकान्तात्मकता और अर्थक्रिया
उत्पाद-व्ययय- ध्रौव्ययुक्त प्रत्येक वस्तु को निरूपण करने के लिए दो प्रमुख दृष्टियां हैंद्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय | S” द्रव्यार्थिक नय 'द्रव्य' (ध्रुवत्व) को प्रमुखता देकर वस्तु का निरूपण करता है, अत: उसके अनुसार वस्तु 'स्यात् नित्य' है। पर्यायार्थिक नय 'पर्याय' को प्रमुखता देकर वस्तु का निरूपण करता है, अतः उसके अनुसार वस्तु 'स्यात् अनित्य' है। अतः वस्तु का समग्र रूप 'स्यात् नित्यानित्यात्मक' प्रतिपादित होता है। इस अनेकान्तात्मक स्वरूप को स्वीकार करने पर ही 'अर्थक्रिया' की उपपत्ति या संगति हो पाती है अन्यथा नहीं | " एकान्त क्षणिक या एकान्त नित्य, दोनों स्वरूपों में अर्थक्रिया की संगति नहीं हो पाती, अत: उसका वस्तुत्व या अस्तित्व ही असंगत हो जाता है। अस्तित्व - वस्तुत्व और अर्थक्रियाकारित्व- ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
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एकान्त क्षणिक वस्तु एक क्षण तक ही ठहरती है, अतः उस में, उसी देश में और क्षणान्तर काल में नष्ट भी हो जाती है। इस तरह उस वस्तु में देशकृत व कालकृत अर्थक्रिया सम्भव नहीं हो सकतीं। निरंश होने से उसमें एक साथ अनेक स्वभाव भी नहीं रह सकते, , इसलिए एक ही क्षण में एक साथ अनेक कार्य सम्भव नहीं हो सकते, क्योंकि एक स्वभाव से तो एक कार्य ही हो पाएगा।
इसी तरह एकान्त नित्य वस्तु में भी अर्थक्रिया असम्भव है। नित्य वस्तु तो सर्वदा एकरूप रहती है, उसमें क्रम से अर्थक्रिया नहीं हो सकती, क्योंकि वैसा मानने पर उसकी एकरूपता या नित्यता के खण्डित होने का प्रसंग होगा। यदि वह एक ही समय में सभी कार्यों को एक साथ
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008
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