SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृप्ताः अर्थात् एक ही क्रिया दो विभिन्न कार्यों/प्रयोजनों की सिद्धि करती है, उदाहरणार्थ- पितरों का तर्पण (अर्घदान) भी हो गया और आम के पेड़ को सींच भी दिया। एक तीर से दो शिकार' की उक्ति ऐसे लोगों के लिए चरितार्थ होती है। जैसे- प्रात:काल टहलते-टहलते किसी मित्र के घर हो आएतो मित्र से मिलना भी हो गया और प्रातःकाल शारीरिक व्यायाम भी हो गया। दार्शनिक चिन्तकों के अनुसार भी प्रत्येक पदार्थ विभिन्न अर्थक्रिया' कर सकता है अर्थात् वह अनेक प्रयोजनों का साधक हो सकता है। उदाहरणार्थ-- एक ही अग्नि दाहक, पाचक व प्रकाशक के रूप में क्रमशः जलाने, खाना पकाने और प्रकाश देने की अर्थक्रिया कर सकता है। क्रिया के सन्दर्भ में महर्षिवेदव्यास का सारभूत कथन यहां मननीय है जो भारतीय संस्कृति में क्रिया' या कर्म की सामान्य अवधारणा को स्पष्ट करता है-- अल्पं हि सारभूयिष्ठं कर्मोदारमेव तत्।। कृतमेवाकृताच्छ्रेयः न पापीयोऽस्त्यकर्मणः।।' कुछ न करने की अपेक्षा कुछ करना अच्छा है, क्योंकि निष्कर्मता, निष्क्रियता से बढ़ कर कोई पाप नहीं है। भले ही कोई काम छोटा दिखाई देता हो, किन्तु यदि उसका सार या परिणाम बहुआयामी हो तो वह कर्म महान् ही है। भागवत पुराण का यह कथन भी सारभूत है कि कर्म ही गुरु या ईश्वर है'। वस्तुत: समस्त जगत् की सुखदुःखात्मक विचित्रता के पीछे (सदसत्) 'कर्म' ही प्रमुख कारण होते हैं। यह ज्ञातव्य है कि प्राचीन साहित्य में 'क्रिया' शब्द सदाचार, प्रशस्त क्रिया के अर्थ में बहुशः प्रयुक्त हुआ है।'' प्रत्येक दर्शन अपनी आचारमीमांसा के सन्दर्भ में ‘क्रिया' या 'कर्म' की ही विस्तृत व्याख्या या विवेचना करता है। इसलिए सदाचरण, श्रेष्ठ-कर्म या धर्माचरण की तरह ही लौकिक जीवन में ‘क्रिया' की महत्ता व उपयोगिता को समझा जा सकता है। भौतिक जगत् की 'क्रिया' : विज्ञान व अध्यात्म के आलोक में वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो भौतिक जगत् का प्रत्येक परमाणु क्रियाशील या सक्रिय है। इसमें प्रोटान' (घनात्मक विद्युत्कण) तथा इलेक्ट्रान (ऋणात्मक विद्युत्कण) सर्वदा, निरन्तर स्पन्दनरूपसूक्ष्म क्रिया करते रहते हैं। जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं, वह भी गतिशील है और वह स्वयं घूमती हुई सूर्य का चक्कर लगाती रहती है। इसी के फलस्वरूप दिन-रात, ऋतु-परिवर्तन आदि घटनाएं अनुभव-प्रत्यक्ष होती हैं। प्रत्येक पदार्थ की अपनी स्वाभाविक क्रिया' है, उसकी अपनी एक रचना-प्रक्रिया है, अन्य पदार्थों के सम्पर्क में उसकी विशेष प्रतिक्रिया या उदासीनता होती है। प्रत्येक पदार्थ विशेष परिस्थिति में विशेष विक्रिया (विकार या परिणति) से गुजरता है। इन्हीं पदार्थीय रचना-प्रक्रिया, क्रिया-प्रतिक्रिया-विक्रिया (विकार) आदि के अनुसन्धान व अध्ययन से अनेक वैज्ञानिक आविष्कार हुए हैं और होते रहेंगे जो भौतिक सभ्यता व सामान्य जन-जीवन को तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008 - - 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524634
Book TitleTulsi Prajna 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy