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________________ जैसे एक कोशिका दूसरी कोशिका को पैदा करती है, एक जीव दूसरे जीव को पैदा करता है, वैसे ही पर्याय का एक क्रम है - उत्पाद से उत्पाद का क्रम चलता है और व्यय से व्यय का क्रम चलता है। यह होता रहता है। चक्र है उत्पत्ति का और विलय का। कैसे होता है? कौन करता है? यह प्रश्न आता है। आकाश में बादल मंडरा रहे हैं और हम देख रहे हैं। कौन कर रहा है ? कुम्हार घड़ा बनाता है, सुनार गहना बनाता है या आज बहुत सारे उपकरण बनते हैं। बड़े-बड़े कारखाने चलते हैं। वहाँ आदमी काम कर रहा है, यंत्र भी काम कर रहा है। वहाँ यह प्रश्न नहीं है कि कौन कर रहा है? एक नया प्रश्न जरूर आ गया। आज कम्प्यूटर भी बहुत कुछ कर रहा है, रोबो भी बहुत काम कर रहा है। नया प्रश्न होगा - पहले तो मनुष्य ही करता था। अब अचेतन भी हाथ बंटाने लगा है। जो अज्ञात है, आज वहाँ प्रश्न है कि कौन कर रहा है? यह वर्षा कौन कर रहा है, बादल कैसे मंडरा रहे हैं? शायद विज्ञान के जमाने में यह भी कोई जटिल बात नहीं रही है। इसका कोई कर्ता नहीं है, स्वभाव से परिणमन हो रहा है। __ परिणमन कैसे होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में बतलाया गया - पओगसा वि वीससा वि- परिणमन प्रयोग से भी होता है, मनुष्य के प्रयत्न से भी होता है और स्वभाव से भी कुछ बातें होती हैं। वैशेषिक दर्शन में सृष्टि को प्रायोगिक माना गया है। कोई करता है, इसलिए प्रयोग से हो रहा है। जैन दर्शन ने केवल प्रयोग से नहीं माना। उसके अनुसार कुछ परिणमन प्रयोग से होते हैं और कुछ स्वभाव से होते हैं। जो प्रयोग से होते हैं, वे जीव और पुद्गल के प्रयोग से होते हैं। इसके सिवाय तीसरी कोई शक्ति प्रयोग करने वाली नहीं है। बहुत सारा परिणमन स्वभाव से होता है। परिणाम के दो रूप हमारे सामने आ गये - परिणमन और गमन। अपनी जाति में जो परिवर्तन होता है, वह है परिणमन । पानी में तरंग उठी, यह स्वजातिगत परिवर्तन है। पानी की बर्फ बना ली, यह गमनीय हो गया। यह जात्यंतर हो गया, अर्थान्तर हो गया। पहले पानी था, अब बर्फ बन गया। यह सारा परिवर्तन जात्यंतर और स्वजातिगत होता है। एक गाय घास खाती है और वही घास दूध में बदल जाता है। जात्यंतर हो गया। हम भोजन करते हैं। भोजन रक्त, रस और मांस में बदल जाता है। यह जात्यंतर परिवर्तन है। जात्यंतर परिवर्तन भी होता रहता है और स्वजातिगत परिवर्तन भी होता रहता है। परिवर्तन का क्रम निरन्तर चलता रहता है। कृत और अकृत पारिणामिक भाव को समझे बिना विश्व की व्याख्या नहीं की जा सकती और वास्तविकता या सत् की व्याख्या भी नहीं की जा सकती। परिणमन हो रहा है। एक स्थूल दृष्टि में जो परिवर्तन होता है, वह हमें दिखाई देता है कि यह परिणमन हो रहा है, बदल रहा तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524634
Book TitleTulsi Prajna 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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