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________________ कि कहीं हमारा अनुभव हमें धोखा तो नहीं दे रहा है। हमें प्रतिदिन अनुभव में आता है कि व्यक्ति बदलता है अर्थात् अनित्य है और हम फिर भी बदलते हुए व्यक्ति को देखकर यह नहीं मान बैठते कि वह कोई दूसरा व्यक्ति है अपितु यही मानते हैं कि भले ही वह बदल गया है किन्तु व्यक्ति वही है। इस प्रकार हमारे अनुभव में अनित्यता और नित्यता दोनों युगपद् आते हैं। किन्तु तर्क का यह तकाजा है कि कोई पदार्थ या तो नित्य होना चाहिए या अनित्य । अत: हम अपने अनुभव में आने वाली नित्यता और अनित्यता में से एक को भ्रम मान लेते हैं। अनित्यता को वेदान्त भ्रम मानता है और नित्यता को बौद्ध काल्पनिक मानता है। जैन का कहना है कि जो प्रत्यक्ष दिख रहा है उसे किसी स्वत: सिद्ध सत्य के नाम पर भ्रम या कल्पना मान बैठना ठीक नहीं है। हमें सोचना यह चाहिए कि जिसे हम स्वत:सिद्ध सत्य कह रहे हैं, वही तो भ्रम नहीं है। हमारे अनुभव में तो निरन्तर नित्यता-अनित्यता, एकताअनेकता, भेद-अभेद जैसे युगल आ रहे हैं। अत: दो विरोधी तत्व एक साथ नहीं रह सकते, यह कहना भी भ्रान्त है। डॉ. मुखर्जी का कहना है कि वेदान्ती और बौद्ध तथा जैन के बीच इस मतभेद का अन्तिम निर्णय लेना कठिन है। उनके अनुसार यह मामला व्यक्तिगत पसन्द का है कि हम अनुभव के आधार पर विरोधियों के सह-अस्तित्व को स्वीकार करें या दो विरोधी एक साथ नहीं रह सकते, इसे स्वत:सिद्ध सत्य मानकर अपने अनुभव का अपलाप करें। दर्शन के क्षेत्र में सापेक्षता की चर्चा आधुनिक युग में संक्षेप में इतनी ही दूर तक गई लगती है। विज्ञान-सम्मत सापेक्षता इधर विज्ञान की खोजों ने सापेक्षता को कुछ नये आयाम दे दिये हैं जिनकी संक्षिप्त चर्चा करना अप्रासंगिक न होगा। पांच फुट लम्बा व्यक्ति चार फुट लम्बे व्यक्ति की अपेक्षा लम्बा है और छह फुट लम्बे व्यक्ति की अपेक्षा छोटा है-यह बात बहुत स्पष्ट है किन्तु आईन्स्टीन ने जिस सापेक्षता का वर्णन किया है वह सापेक्षता यह बिल्कुल नहीं है। आईन्स्टीन का कहना है कि पांच फुट लम्बा व्यक्ति कभी सवा पांच फुट का हो जाता है और कभी पौने पांच फुट का ही रह जाता है। इतना ही नहीं, वह व्यक्ति एक ही अवधि में कभी पचास वर्ष का हो जाता है और कभी दस वर्ष का रह जाता है। यदि हम जानना चाहें कि वह व्यक्ति वस्तुतः कितना लम्बा है तो हम यह जान ही नहीं सकते। किसी पदार्थ की वास्तविक लम्बाई को जानने का प्रयत्न ऐसा ही है जैसे किसी व्यक्ति की जमीन पर पड़ने वाली परछाई की वास्तविक लम्बाई जानने का प्रयत्न। हम केवल इतना ही बता सकते हैं कि उसकी परछाई एक निश्चित समय और स्थान पर कितनी लम्बी होती है, किन्तु यह 4 -] तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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