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________________ 4. किसी व्यापार एवं सेवा में, कला या हुनर के माध्यम से अपने आपको लाभ होने पर भी तृप्त नहीं होना, संतोष नहीं करना अतिलोभ नाम का अतिचार है। 5. लोभ के वश से तिर्यञ्चों (पशुओं) के ऊपर सीमा से अधिक भार लादकर चलाना आदि वह अतिभार-वाहन नाम का अतिचार है। उक्त अतिचारों के अभाव के द्वारा ही समतावादी समाज की रचना की जा सकती है। फलतः व्यक्ति मर्यादित वस्तुओं को रखेगा एवं अन्य अनावश्यक वस्तुओं, पैसा, जमीन, जायदाद और संपत्ति आदि से निवृत्ति रखेगा। अनावश्यक लाभ और संग्रह की वृत्ति का अभाव एवं संतोष वृत्ति जागृत होगी। परिग्रहपरिमाण व्रत का ही दूसरा नाम इच्छा-परिमाण व्रत है। इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं। इच्छा पूर्ति, इच्छारूपी अग्नि की वृद्धि में घृत का कार्य करती है एवं तृष्णा को बढ़ाती है। अत: इच्छा तृप्ति का श्रेष्ठ उपाय इच्छा-परिमाण और इच्छा-नियंत्रण है। यद्यपि साधारण लोगों के लिए इच्छाओं का सर्वथा त्याग संभव नहीं है परन्तु उन्हें परिमित अवश्य किया जा सकता है। मनुष्य को उतना ही परिग्रह रखना या संग्रह करना चाहिए। जितना उसके एवं उसके आश्रितों के लिए अनिवार्य है। अनावश्यक संग्रह ही हमारी सामाजिक विषमता का मुख्य कारण है। अतः यदि हम वास्तव में सरल एवं सच्चा सामाजिक जीवन जीना चाहते हैं तो हमें अपनी बढ़ी हुई तृष्णा पर अंकुश लगाना ही होगा। ___पं. टोडरमल जी ने इच्छा के चार भेद उल्लिखित किये हैं1- (1) विषय ग्रहण करने की इच्छा (2) कषाय भावों के अनुसार कार्य करने की इच्छा। (3) पाप के उदय के कारण होने वाली इच्छा (4) पुण्य के उदय से होने वाली इच्छा। पंडित जी कहते हैं- इन इच्छाओं की तृप्ति बिना भी कार्य चल सकता है लेकिन अज्ञानी और अबोध व्यक्ति इनकी पूर्ति करने में सुख मानता है एवं निरन्तर प्रयत्न करता है। अत: इच्छाओं पर नियन्त्रण रखना चाहिए तथा संतोष वृत्ति को धारण करना चाहिए। कहा भी गया है - "तृष्णा लोभ बढ़े न हमारा, तोष सुधा नित पिया करें।" अपरिग्रह को भावात्मक शब्दावली में हम संतोष भी कह सकते हैं। जिसका महत्त्व भारतीय चिन्तन-परम्परा में पर्याप्त रूप से वर्णित है। योगशास्त्र में अपने पंचयमों में यदि अपरिग्रह को स्थान दिया है तो नियमों में संतोष का भी उल्लेख प्राप्त होता है। पंचेन्द्रिय विषय-भोगों में आसक्ति कम करने के लिए परिग्रह-परिमाणव्रत की भावनाओं की व्याख्या भी चिन्तकों ने स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण एवं शब्द के प्रति रागद्वेष वर्जन की बात की। जैनदर्शन के अतिरिक्त अपरिग्रह का महत्त्व भारतीय चिन्तन में भी स्वीकार किया गया है। वेद उपनिषद् तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2006 0 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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