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________________ कारणता का प्रसंग ही नहीं आएगा एवं सर्वथा शाश्वत पदार्थ में परिणमन का अभाव होने से नए कार्य की उत्पत्ति ही नहीं होगी। स्वामी कार्तिकेय 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में कहते हैं-- जं वत्थु अणेयतं तं चिय कजं करेई णियमेण। बहुधम्मजुदं अत्थं कजकरं दीसदे लोए॥ जो वस्तु अनेकान्त स्वरूप है वही नियम से कार्यकारी होती है, क्योंकि बहुत धर्मों से युक्त अर्थ ही जगत में कार्यकारी देखा जाता है। एकान्त रूप द्रव्य लेशमात्र भी कार्य करने में समर्थ नहीं होता है। यदि पाषाण रूप शाश्वत, एकान्तिक द्रव्य में पर्याय रूप परिणमन न हो तो त्रिकाल में भी मूर्ति रूप कार्य की उत्पत्ति नहीं होगी। इसी तरह यदि एकान्तिक क्षणिक द्रव्य को मानने पर पाषाण मूर्तिरूप कार्य का उपादन कारण नहीं बन सकेगा, क्योंकि पूर्व क्षण की पर्याय का उत्तर क्षण की पर्याय से कोई सम्बन्ध ही नहीं होगा। इस प्रकार द्रव्य एवं पर्याय को दृष्टिगत रखते हुए हम उपादान को मुख्यतः दो भागों में विभक्त कर सकते हैं- (1) त्रिकाली उपादान (2) क्षणिक उपादान। ____ जो द्रव्य या गुण स्वयं कार्यरूप परिणमित हो, उस द्रव्य या गुण को उस कार्य का त्रिकाली उपादान कारण कहते हैं। क्षणिक उपादान का द्रव्य और गुणों में जो पर्यायों का प्रवाहक्रम अनादि - अनन्त चलता रहता है उसी की संज्ञा है। अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण एवं अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती पर्याय कार्य है। उक्त सन्दर्भ की पुष्टि कार्तिकेयानुप्रेक्षा की निम्न गाथा से होती हैपुव्वपरिणाम जुत्तं कारणभावेण वट्टदे दव्वं । उत्तर परिणाम जुदं तं चिय कजं हवे णियमा ॥ अर्थात् अनन्तरपूर्व परिणाम से युक्त द्रव्य कारण रूप से परिणामित होता है और अनन्तर - उत्तर पर्याय विशिष्ट द्रव्य है, उसकी कार्य संज्ञा है। इसी प्रकार पर्याय की तत्समय योग्यता भी क्षणिक उपादान कारण है। क्षणिक उपादान कारण को समर्थ उपादान कारण भी कहते हैं, क्योंकि त्रिकाली उपादान कारण तो सदा विद्यमान रहता है; यदि उसे ही पूर्ण समर्थ कारण मान लिया जाय तो विवक्षित कार्य की निरन्तर उत्पत्ति होती ही रहेगी किन्तु ऐसा नहीं होता है। इसलिए पूर्व क्षणवर्ती पर्याय का व्यय एवं उस पर्याय की उस समय की योग्यता ही किसी कार्य का समर्थ उपादान है। जिनके न होने पर कार्य उत्पन्न नहीं होता एवं जिनके होने पर कार्य नियम से उत्पन्न होता है। ___तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में उपादान के दो भेद करते हुए एक असमर्थ उपादान एवं दूसरा समर्थ उपादान माना गया है। जिसमें समर्थ उपादान को ही कार्य का अवश्य जनक माना है। तुलसी प्रज्ञा जुलाई -दिसम्बर, 2006 - 067 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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