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________________ पाषाण छेनी, हथौड़ा एवं मूर्तिकार की अपेक्षा। इस प्रकार आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने बिना किसी सहायता के होने वाले परिवर्तनों अर्थात् वैस्रसिक परिवर्तन को अपरिसुद्ध एवं बाह्य हेतु की अपेक्षा रखने वाले परिवर्तनों को समुदायवाद की संज्ञा दी है। इन परिवर्तनों के फलस्वरूप ही जगत में विभिन्न प्रकार के कार्य होते हैं। प्रत्येक कार्य कारण पूर्वक ही होता है और कार्य की उत्पादक सामग्री ही 'कारण' कहलाती है। आचार्य अकलंक 'राजवार्तिक' में लिखते हैं कि 'जो निष्पादन या प्राप्त किया जाये, ऐसी पर्याय तो कार्य है और जो परिणमन करे, ऐसा द्रव्य कारण है। जब हम कारण एवं कार्य के सम्बन्ध एवं स्वरूप पर विचार करते हैं तो एक ही द्रव्य में कारण एवं कार्य को समान रूप से बिना किसी विरोध के विद्यमान पाते हैं। द्रव्य की पूर्व पर्याय कारण एवं उत्तर पर्याय कार्य कहलाती है। नयचक्र में इसी बात को प्रमाणित करते हुए आचार्य कहते हैं 'उप्पज्जंतो कजं कारणमप्पा णियं वि जणयंतो। तम्हा इह ण विरुद्ध एकस्स वि कारणं कज्जं ।' अर्थात उत्पद्यमान कार्य होता है और उसको उत्पन्न करने वाला निज आत्मा कारण होता है। इसप्रकार न्याय की भाषा में कारण-कार्यभाव को अन्वय-व्यतिरेक गम्य कहा जाता है अर्थात् जिसके होने पर जो होता है और नहीं होने पर नहीं होता या जिसके बिना जो नियम से नहीं होता वह उसका कारण व दूसरा कार्य होता है। कार्य की ये उत्पादक सामग्री दो रूपों में विभक्त होती हैं – उपादान एवं निमित्त । इन्हें क्रमश: अन्तरंग एवं बहिरंग की संज्ञा दी जाती है। आचार्य अकलंक राजवार्तिक में कहते हैंद्विविधो हेतुर्बाह्य आभ्यन्तरश्च! द्रव्य की स्वयं की शक्ति अन्तरंग एवं बाह्य की शक्ति बहिरंग कारण कहलाती है। वस्तुतः जो स्वयं कार्यरूप में परिणमित हो उसे 'उपादान कारण' एवं जो स्वयं तो कार्यरूप परिणमित न हो परन्तु कार्य उत्पत्ति में अनुकूल हो उसे 'निमित्त कारण' कहते हैं। जैसे किसी मूर्ति के लिए पाषाण उपादान कारण एवं छेनी, हथौड़ा व मूर्तिकार आदि 'निमित्त कारण'। इस प्रकार जैन दर्शन में कारण एवं कारण के भेद एवं प्रभेदों का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। कारण को दो भागों में विभक्त कर उपादन एवं निमित्त कारण का वर्णन जैन ग्रन्थों में मिलता है। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2006 - 165 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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