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________________ इसे पढ़कर मुझे अपनी किशोरावस्था और स्कूल के दिन याद आए। दशवीं कक्षा तक सुजानगढ़ (राजस्थान) में पढ़ा था। वार्षिक परीक्षा के बाद दो महीने का ग्रीष्मावकाश होता। 'Idleness' की ही मन:स्थिति के साथ उन छुट्टियों में मैंने प्रेमचंद का पूरा साहित्य, जयशंकर प्रसाद का 'कंकाल' और 'चंद्रगुप्त मौर्य', क. मा. मुंशी का 'जय सोमनाथ', आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की 'बाणभट्ट की आत्मकथा' एवं सेक्सटन ब्लेक सीरीज के कुछ जासूसी उपन्यास पढ़े। साथ ही टॉलस्टाय, चेखव और मैक्सिम गोर्की की कुछ कहानियाँ भी। सन् 1955 में कलकत्ता आया। सन् 2005 के मई महीने के साथ पूरे हुए इन पचास वर्षों में पढ़ने का शौक होते हुए भी जो पढ़ सका वह केवल इतना-सा ही है- काव्य कृतियों में प्रसाद की 'आँसू' और 'कामायनी', मैथिलीशरण गुप्त की 'साकेत' कन्हैयालालजी सेठिया की 'निष्पत्ति' और 'हेमाणी', आचार्य महाप्रज्ञ की 'ऋषभायण' और गद्य साहित्य में आचार्य महाप्रज्ञ का 'चित्त और मन', शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय का 'गृहदाह', टॉल्स्टाय का 'अन्ना कारेनिना', देवकीनंदन खन्नी का 'मृत्यु किरण' व 'रक्त मंडल' और सर आर्थर कोनन डोयल का पूरा कथा-साहित्य । इनके अतिरिक्त गांधी वाड्मय और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कुछ मनन योग्य सामग्री पर भी यदा कदा दृष्टि पड़ी। बस यही। Idleness के मनोभावों या मनोरंजन की दृष्टि से पढ़ी गिनती की कुछ पुस्तकें विचारों को वह पुष्टता प्रदान नहीं करती जो क्रमबद्ध और लक्ष्यप्रेरित अध्ययन से प्राप्त होती है पर स्टीफेन हेरोल्ड स्पेन्डर के उक्त उद्धरण ने, अब तक जो थोड़ा-बहुत मैंने पढ़ा था उसके संचित प्रभाव (cumulative effect) को मेरे मस्तिष्क में जैसे एक साथ ही जीवित कर दिया और जिस संदर्भ में मैंने इन पंक्तियों को लिखना प्रारम्भ किया था, उसे किंचित विस्तार देने के लिए विवश भी। It is inmortal spirit of the dead realised within the bodies of the living - इस पंक्ति के भावों ने पन्द्रह वर्ष की अवस्था में पढ़ी हिन्दी की प्रतिनिधि पुस्तकों में से एक, आचार्य प्रसाद द्विवेदी की उक्त कृति 'बाणभट्ट की आत्मकथा' को पुन: एक बार मेरे सामने खोल दिया। इस पुस्तक के प्रकाशन की विचित्र पृष्ठभूमि अकस्मात मेरी स्मृति में उभरी। हिन्दी साहित्य को आचार्य द्विवेदी जी की इस देन के पीछे एक विदेशी महिला की आस्था, निष्ठा और लगन है, यह कुछ अनहोनी के घटने जैसा लगता है। पुस्तक के कथामुख (भूमिका) और उपसंहार-अध्याय में जितना कुछ दृश्य है, उससे कहीं अधिक अदृश्य है। इन पंक्तियों का सम्बन्ध इन दो प्रकरणों से ही है, मुख्य कथावृत्त से नहीं। उनमें जो दृश्य है, पहले उसे सार रूप में रखता हूँ। 34 - - - - तुलसा प्रज्ञा अक 132-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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