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________________ राग-द्वेष से युक्त व्यक्ति युक्तिसंगत बात कर ही नहीं सकता और जो युक्तिसंगत बात करेगा, वह राग-द्वेष में फंस ही नहीं सकता। धर्म के तर्क संगत होने का यही अर्थ है। तर्क का प्रयोग दर्शन शास्त्र में हुआ किन्तु दर्शन का मुख्य अर्थ था-सत्य को देखना। जीवन की समस्याएं तर्क से नहीं सुलझती हैं। वे सुलझती हैं सत्य के साक्षात्कार से। जहां तर्क समाप्त होता है वहां वास्तविक दर्शन-सत्य का साक्षात्कार प्रारंभ होता है। तर्कातीत सत्य तर्क का अपना उपयोग है। जो व्यवस्थाएं हमने बनाई उनका आधार तर्क है और तर्क के आधार पर उन्हें बदला भी जा सकता है-बदला जाना भी चाहिए। सारी व्यवस्थाओं का विकास इसी प्रकार होता है। हम अराजकता से राजतंत्र और राजतंत्र से लोकतंत्र पर तर्क के सहारे आये हैं। ये हमारे विकास का इतिहास है। पशु ने ऐसा कोई विकास नहीं किया, क्योंकि उसमें तर्क बुद्धि नहीं है। किन्तु तर्क हमें पक्षपात से मुक्ति नहीं दिला पाता। तर्क का जितना उपयोग सत्य को सिद्ध करने के लिए हुआ, असत्य को सिद्ध करने के लिए भी तर्क का उपयोग उससे कम नहीं हुआ। किन्तु साक्षात्कार सदा सत्य का ही सहायक बना है। सम्भावनायें और योजनायें अनेकान्त हमें संशय में डाल सकता है-यह आक्षेप बहुत पुराना है। वस्तुतः अनेकान्त संशय में नहीं डालता अपितु संभावनाओं के द्वार खोलता है। निर्णय वर्तमान पर्याय के आधार पर किया जाता है किन्तु यदि हम भविष्य की पर्यायों की संभावना पर ध्यान न दें तो विकास के लिए कोई योजना ही नहीं बना सकेंगे। कोई भी निर्णय जब तक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की समझ के साथ न लिया जाये तब तक वह निर्णय ठीक नहीं हो सकता। विज्ञान में संभावनावाद का सिद्धांत मान्य है। संभावना का अर्थ संशय नहीं है। संभावना का अर्थ है-बदल सकने की क्षमता। व्यवहार वर्तमान के आधार पर होगा, योजना भविष्य की संभावना के आधार पर बनेगी। जिस प्रकार भविष्य के लिए योजना बनाना आवश्यक है उसी प्रकार अतीत से सीखना भी आवश्यक है। वस्तुतः अतीत, वर्तमान और भविष्य का विभाजन हम अपनी उपेक्षा से करते हैं। काल में ऐसा कोई विभाजन नहीं है। निरपेक्ष काल अविभक्त ही है। जब तक हम विभक्त काल को ही एकमात्र सत्य मान लेते हैं तो यह काल का एक पक्षीय दृष्टिकोण हुआ। जड़-चेतन जब जड़ और चेतन बंधे रहते हैं तो अन्योन्य सापेक्ष होते हैं। स्वतंत्र होने पर वे निरपेक्ष हो जाते हैं। इस प्रकार सापेक्ष की भी सत्प्रतिपक्ष निरपेक्षता है। निश्चय और व्यवहार की अनेक परिभाषाएं हैं। एक परिभाषा यह भी है कि अतीन्द्रिय ज्ञान निश्चय नय का विषय है। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2006 - - 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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