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________________ पदार्थ और ऊर्जा की युति आईन्स्टीन के सापेक्षता सिद्धान्त का एक दूसरा और महत्त्वपूर्ण पक्ष है - पदार्थ और ऊर्जा की एकता जिसे हम एक दूसरे परिप्रेक्ष्य में शरीर और मन की एकता भी कह सकते हैं। पूर्व और पश्चिम दोनों में भ्रम की चर्चा हुई है। भ्रम का यह अर्थ नहीं है कि पदार्थ है नहीं किन्तु भ्रम का यह अर्थ कि पदार्थ जैसा है हम उसे वैसा नहीं देख पा रहे हैं । इसके साथ ही पदार्थ जैसा है- हम उससे भाषा में प्रकार कह नहीं पा रहे हैं। भारत में अन्न से मन बनने की बात कह कर एक अर्थ कहा गया कि पदार्थ का द्रव्यमान यदि प्रकाश की गति के वर्ग से गुणित किया जाये तो वह ऊर्जा बन जायेगा | सूत्र है - E=MC2 | E का अर्थ है Energy (ऊर्जा), M-Mass (द्रव्यमान) C प्रकाश की गति का द्योतक है। इसका यह अर्थ होता है कि पदार्थ के छोटे से छोटे कण में भी बहुत बड़ी मात्रा में घनीभूत ऊर्जा है। इसी कारण किसी सितारे के केन्द्र में तारे की आकर्षण शक्ति से आकृष्ट होकर जब चार हाइड्रोजन के परमाणु मिलकर एक हीलियम परमाणु बनते हैं तो उस हीलियन परमाणु का द्रव्यमान उन चार हाइड्रोजन परमाणुओं के द्रव्यमान से थोड़ा- सा कम होता है अर्थात् कुछ द्रव्यमान ऊर्जा अर्थात् ताप और प्रकाश में बदल जाता है। इस कारण वे तारे लाखों वर्ष तक चमकते रह सकते हैं। इसी आधार पर हाइड्रोजन बम का आविष्कार भी हुआ । इस प्रकार जिस तरह सापेक्षता के सिद्धान्त से देश और काल एक ही तत्त्व के दो पक्ष सिद्ध हुए उसी प्रकार द्रव्यमान और ऊर्जा भी एक ही तत्त्व के दो पक्ष सिद्ध हो गये । इस सिद्धान्त के आधार पर कि पदार्थ न नया उत्पन्न होता है कि न नष्ट होता है- यह सिद्धान्त बन गया कि पदार्थ - ऊर्जा का समन्वित रूप न नया उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है । निष्कर्ष विज्ञान द्वारा स्वीकृत सापेक्षता के सिद्धान्त की ऊपर दी गयी रूपरेखा के आलोक में यदि हम अनेकान्त अथवा स्याद्वाद के सिद्धान्त को देखने का प्रयत्न करें तो कतिपय तथ्य हमारे सम्मुख आयेंगे 10 1. बौद्ध एवं वेदान्ती का यह कथन है कि यदि कोई घटना स्वतः सिद्ध तर्क के विरुद्ध दिखायी दे तो हमें स्वतः सिद्ध तर्क को वरीयता देनी चाहिए और उस घटना की ऐसी व्याख्या करनी चाहिए कि वह तर्क विरुद्ध न रह जाये । उदाहरणतः हमें पदार्थ में नित्यता और अनित्यता दोनों दृष्टिगोचर होती है किन्तु स्वतःसिद्ध तर्क का तकाजा है कि ये दोनों एक साथ नहीं रह सकती, अतः इनमें से या तो नित्यता ही सत्य है, अनित्यता मिथ्या है (जैसा कि वेदान्ती तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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