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________________ आधारभूत नैतिक मूल्यों में विश्वास करते हुए गाँधी ने सभी धर्मों की आधारभूत एकता का प्रतिपादन किया है। वे हिन्दू धर्म को व्यापक अर्थ में मानव जाति के सभी महान् धर्मों जैसे यहूदी, ईसाई, इस्लाम, पारसी धर्म को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। गाँधी विश्व के सभी महान्-धर्मों की मूलभूत शिक्षाओं में विश्वास करते थे। इसके विपरीत मार्क्स सम्पूर्ण मध्यवर्गीय आचार और नैतिकता व्यवस्था के साथ ही सभी मध्यवर्गीय संस्थाओं के विनाश पर खड़े हुए थे, क्योंकि उनमें अधिकाशंतः धार्मिक विश्वास पर आधारित अनुमति द्वारा घोषित थे। अतः इनका विनाश करने के लिए धर्म का संहार करना भी उनके लिए अनिवार्य हो गया। द्वन्द्वात्मक भौतिकतादी होने के कारण धार्मिक भावना को उन्होंने सामाजिक देन माना है। “धर्म जनता की अफीम है",24 मार्क्स की यह उक्ति धर्म विषयक सम्पूर्ण मार्क्सवादी दृष्टिकोण की आधार शिला है। मार्क्स ने सभी आधुनिक धर्मों, मठों और सभी धर्म संस्थाओं को यह मध्यवर्गीय प्रतिक्रिया का उपकरण माना है जो शोषण का समर्थन और श्रमिक वर्ग के लिए सदैव बेहोशी की दवा का कार्य करते है। धर्म के नाम पर निरन्तर चलते रहने वाले शोषण के विरुद्ध संघर्ष में गांधी मार्क्स से पूर्णत: सहमत है। सहिष्णुता की भावना, पारस्परिक प्रेम, सार्वभौमिक शान्ति, सामाजिक न्याय और विश्व बन्धुत्व सभी धर्मों का लक्ष्य होता है। मार्क्सवाद ने धर्म को अस्वीकार करके व्यक्ति के अच्छे और संयमित आचरण की बहुत बड़ी प्रेरक शक्ति का अपहरण कर लिया है। धर्म के संश्लेषणात्मक पक्ष से सम्बन्धित गाँधीवादी दृष्टिकोण मानव जाति के लिए चिर स्थाई शक्ति के मार्ग और सर्वोदय-भविष्य का आदर्श समाज के भातृत्व में मानव के मूल धर्म की उद्घोषणा करता है। पूँजीवाद और औद्योगिक व्यवस्था - ____ मार्क्स का जन्म और पालन-पोषण एक ऐसे वर्गीय समाज में हुआ जिसका पूँजीवाद अपनी यदमात्यन नीति के अतिवादी छोर तक पहुंच चुका था।शोषण, परायापन, युद्धोन्मुखता, मांग और पूर्ति के नियम के अभिशाप के कारण पूंजीवाद व्यवस्था अनपेक्षित बन गयी थी। वस्तुत: मार्क्स अपने जन्मजात अन्तर्विरोधों के कारण विनष्ट होने के लिए अभिशप्त पूंजीवादी व्यवस्था के सर्वनाश के महीसा हुए हैं। गाँधी मार्क्स की भांति वे पूंजीवादी व्यवस्था से उत्पन्न सामाजिक और आर्थिक शोषण के विरुद्ध थे। गाँधी ने पाश्चात्य सभ्यता के हास और पतन की भविष्यवाणी की थी। किन्तु मानव आत्मा के पुनर्नवीनीकरण की शक्ति से उनका विश्वास नहीं उठा था। तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006 - - 67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524627
Book TitleTulsi Prajna 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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