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अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥
अर्थात् आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति होना हिंसा और निश्चय से उनकी उत्पत्ति न होना ही अहिंसा है । यही जिनागम का सार है। हिंसा को दो भागों में बांटा जाता है- द्रव्यहिंसा और भाव हिंसा । उद्योगी हिंसा, आरम्भी हिंसा, संकल्पी हिंसा और विरोधी हिंसा ये चार भेद भी हिंसा के ही हैं। अहिंसा का वास्तविक परिणाम आत्मशुद्धि है तथा जिसकी आत्मा स्वयं में शुद्ध व निर्मल नहीं है, वह दूसरों को कैसे शुद्ध कर सकता है। इस प्रकार अहिंसा का स्वरूप बताकर श्रमणाचार्यों ने समस्त जीवों के कल्याण का उपदेश दिया है।
अपरिग्रह - असंग्रह - अहिंसक आचरण मनुष्य में विशाल लोक चेतना को जागृत करता है । इस आचरण के फल स्वरूप असंग्रह की भावना का उदय होता है । व्यक्तिगत सुख का अधिकतम त्याग मानव में जागृत होता है । यह त्याग बाह्य असंग्रह है और आन्तरिक, सांसारिक इच्छाओं का त्याग आन्तरिक असंग्रह है । महावीर के 1 युग में धर्म के नाम पर पण्डे पुजारी अधिकतर संग्रह वृत्ति के आदी हो चुके थे । महावीर ने स्वयं अहिंसक और अपरिग्रही बनकर राज्य सुख त्यागकर जनता के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया । " यह संसार से घृणा करके नहीं किया अपितु जीवन की पूर्णता, वास्तविकता और विश्व के ऐक्य को खोजने के लिए यह मार्ग अपनाया ।'
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अनेकान्त - भारतीय संस्कृति को श्रमण संस्कृति की तीसरी देन विचार के क्षेत्र से सम्बद्ध है। यह पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि जैन अम्नाय की समस्त आचार प्रक्रिया अहिंसा मूलक है और विचार पद्धति अनेकान्तात्मक । अतः अहिंसा और अपरिग्रह जैनाचार की आधार भूमि है और अनेकान्त तथा स्याद्वाद विचार पथ के प्रकाश स्तम्भ । जैन दर्शन में दो शब्द प्रचलित हैं- 1. अनेकान्त, 2. स्याद्वाद । अनेकान्त द्वारा वस्तु की अनेक रूपात्मक और गुणात्मक सत्ता का बोध होता है, वस्तु की स्थिति समझ में आ है, अतः यह वस्तु या विषय बोध की व्यवस्था है । स्याद्वाद द्वारा वस्तु की अनेकविध सत्ता का कथन किया जाता है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्र सत्ता है, एवं प्रत्येक प्राणी अपने भाग्य का निर्माता है अतः स्वतन्त्र है, इसलिए उसकी स्वतंत्रता का अपहरण नहीं होना चाहिए। प्रत्येक जीव साधना के द्वारा सर्वोच्च पद प्राप्त कर सकता है । यही समझ एवं दृष्टि अनेकान्त दृष्टि है । अनेकान्त को समझ कर ही हम आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया एवं तत्त्वज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं । जिनके विचारों में अनेकान्त और वाणी में स्याद्वाद होता है, उन्हें जगत में कोई दुःखी नही कर सकता तथा उनका कल्याण निश्चित होता है।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 131
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