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पर निन्दा के सन्दर्भ में भी निष्कारण ही अपने गुरु, आचार्य और उपाध्याय आदि परम उपकारियों की निन्दा करना तो महा निकृष्ट कोटि में माना जाता है। ___16. सत्य के प्रति विनम्र रहना- (नियतणे वई सच्चवाई) सत्य अनंत है, इसलिए इसकी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति संभव नहीं हो सकती। प्रत्येक सत्य साधक का सत्य भिन्न हो सकता है, इसलिए किसी विषय को भली-भाँति जानते हुए भी सत्य के प्रति विनम्र रहना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि 'मैं ही इस अर्थ का जानकार हूँ, दूसरा नहीं' इस प्रकार गर्व नहीं करना चाहिए।
सत्य की स्वीकृति के दो रूप होते हैं- (1) विनम्र स्वीकृति (2) आग्रहपूर्ण स्वीकृति। विनम्र स्वीकृति का स्वर इस प्रकार होता है : 'मैं इतना ही जानता हूँ। इससे आगे मुझसे अधिक ज्ञानी जानते हैं, अपने ज्ञान की सीमा का अनुभव ही यह विनम्रता है।
17. कलहकारी वचन नहीं बोलना-(न य वुग्गहिंय कहं कहेज्जा) मानसिक आशान्ति के बीस कारण बतलाए गए हैं, उनमें दो इस प्रकार हैं
(1) अनुत्पन्न नए कलहों को उत्पन्न करना (2) शमित और उपशान्त पुराने कलहों की उदीरणा करना
कलह का कारण क्रोध होता है। क्रोध स्वयं को भी आ सकता है और दूसरों को भी। ऐसा भी देखा जाता है कि किसी व्यक्ति विशेष को किसी शब्द विशेष से चिढ़ होती है। उसके सामने वैसे शब्द बोलते ही वह क्रोध से भड़क उठता है और कलह शुरू हो जाता है। इसलिए दूसरों के सामने ऐसे शब्द नहीं बोलने चाहिए जिससे वह कुपित हो जाए तथा स्वयं के क्रोधित होने की स्थिति में कुछ नहीं बोलना ताकि कलह बढ़े नहीं, शान्त हो जाए।
18. विवाद नहीं करना- (ण विरुज्झेज्ज केणइ)64 किसी ज्ञातव्य विषय पर चर्चा करना, समझना और समझाना तो अच्छी बात है किन्तु विवाद करना नहीं। विवाद करने में दृष्टिकोण अपने मत की स्थापना का रहता है, ज्ञान वृद्धि का नहीं और विवाद का अन्तिम परिणाम मधुर नहीं होता। इसलिए विवाद से सदैव बच कर रहना चाहिए। इसमें भी निम्न दो व्यक्तियों से तो विशेष रूप से विवाद करना ही नहीं चाहिए(1) तुच्छ व्यक्ति- तुच्छ व्यक्ति से विवाद करने पर व्यक्ति तुच्छता को प्राप्त
होता है। इससे दोनों ओर हानि है, क्योंकि यदि विवाद में तुच्छ से पराजय हो जाती है तो अपमान होता ही है। विजय होने पर भी हानि ही है, क्योंकि तुच्छ व्यक्ति से जीतने के लिए व्यक्ति को अपने स्तर से गिर कर उसके बराबर आना पड़ता है।
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006
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