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नया मानते हैं। न्यायवैशेषिक दार्शनिक सांख्य के सत्कार्यवाद के विपरीत कार्य को कारण से सर्वथा नया मानते हैं। उनके अनुसार कारण से कार्य का नया आरम्भ होता है, इसीलिए इस मत को आरम्भवाद भी कहते हैं। कार्य के रूप में नये अध्याय का सृजन होता है।
अपने सिद्धान्त की पुष्टि में न्याय-वैशेषिक दार्शनिक सांख्य से कुछ प्रश्न करते हैं जिससे सांख्य के सत्कार्यवाद का खण्डन और असत्कार्यवाद का मंडन होता है, जो इस प्रकार है
1. यदि सत्कार्यवाद के अनुसार कारण और कार्य एक है तो अलग-अलग नाम की संज्ञा क्यों ? दोनों एक हैं तो दोनों के एक नाम होने चाहिए। जबकि एक का नाम 'कारण' है तो दूसरे का नाम 'कार्य' है। नाम या संज्ञा का पार्थक्य यह सिद्ध करता है कि दोनों अलग-अलग हैं।
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2. यदि कारण और कार्य एक हैं तो दोनों के स्वरूप में अन्तर क्यों है ? कारण अर्थात् मिट्टी का पिण्ड और कार्य अर्थात् मिट्टी के घड़े का स्वरूप एक जैसा नहीं है। पिंड का आकार अलग है तो घड़े का आकार भी पृथक् है । यदि दोनों के आकार एक जैसे नहीं हैं तो दोनों एक न होकर पृथक्-पृथक् हैं अर्थात् कारण और कार्य का स्वरूप पृथक् है ।
3. यदि कारण और कार्य एक हैं तो दोनों के उपयोग में अन्तर क्यों ? अर्थात् कारण का पृथक् उपयोग होता है तो कार्य का पृथक् उपयोग होता है। लकड़ी जलाने के काम आती है तो लकड़ी की कुर्सी बैठने के काम आती है अतः लकड़ी और लकड़ी की कुर्सी में अन्तर है, अतः सत्कार्यवाद ठीक नहीं है।
4. यदि कारण और कार्य एक है तो रूपान्तरण की जरूरत नहीं होनी चाहिए। जबकि हम देखते हैं कि कारण का रूपान्तरण होता है और इसके लिए निमित्त कारण की अपेक्षा होती है, अतः सत्कार्यवाद ठीक नहीं है।
अतः जहां सत्कार्यवादी कारण और कार्य में अभेद मानते हैं वहीं न्याय-वैशेषिक दोनों में भेद मानते हैं। उनके अनुसार कारण और कार्य दोनों के स्वरूप, शक्ति और विन्यास में भेद दृष्टिगोचर होता है अर्थात् कार्यकारणयो: स्वरूप शक्ति संस्थान भेदस्य प्रत्यक्ष सिद्धत्वात् । अत: कारण और कार्य में भेद है।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 131
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