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________________ जैन वाङ्मय में अष्टमंगल - एक विवेचन डॉ. हरिशंकर पाण्डेय १. प्ररोचना भारतीय परम्परा मंगल और मांगलिक वस्तओं के सृजन, सम्वर्द्धन और संपादन में संन्यस्त है। ऐहिक जीवन में पूर्ण मंगल की संस्थापना कर, उसको भोगकर पारलौकिक मंगल में पूर्ण प्रतिष्ठित हो जाना प्रत्येक भारतीय का संकल्प होता है। "जीवेम शरदः शतम्" की रमणीय भावना से विभूषित ऋषि-परम्परा वहां जाना चाहती है, जहां शोक, दुःख, मोह का नामोनिशान भी नहीं रहता, सिर्फ रमणीयता का, दिव्याह्लादकता का, परमानन्द और परममोद का साम्राज्य अवशिष्ट रहता है वहां जन्म, मृत्यु, जरा और जीर्णता पूर्णत: जीर्ण शीर्ण हो जाती है, नित्य महोत्सव ही अवशेष रहता है, जो चिरनवीन होता है। तदेव रम्यं रुचिरं नवं नवं, तदेव शाश्वत् महतो महोत्सवम्। तदेव शोकार्णव शोषणं नृणां, सदूत्तमश्लोक यशोऽनुगीयते॥ २. मंगल-विमर्श _ 'मगि-गत्यर्थः' धातु से मंगतेरलच् से अलच् (अल) प्रत्यय होकर मंगल, नपुंसकलिंग में 'मंगलम' शब्द बनता है। अभिप्रेतार्थसिद्धिः मंगलम् अर्थात् अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि मंगल है। प्रशस्त का नित्य आचरण और अप्रशस्त का विसर्जन मंगल है प्रशस्ताचरणं नित्यमप्रशस्तविसर्जनम्। एतद्धि मंगलं प्रोक्तं ऋषिभिस्तत्वदर्शिभिः॥' 'मगि सर्पणे' धातु से भी अलच् प्रत्यय करने पर मंगल शब्द निष्पन्न होता है। मंगति सर्पति पापानि इति जिससे पाप दूर भाग जाते हैं, वह मंगल है। विष्णुपुराणकार का अभिमत है तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006 - - 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524627
Book TitleTulsi Prajna 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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