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________________ षद्रव्य : यह तो हम स्पष्ट कर चुके हैं कि षट्-द्रव्यों की अवधरणा का विकास पंचास्तिकाय की अवधारणा से ही हुआ है। लगभग प्रथम-द्वितीय शताब्दी में ही पंचास्तिकायों के साथ काल को भी स्वतन्त्र द्रव्य मानकर षद्रव्यों की अवधारणा निर्मित हुई। यद्यपि काल स्वतन्त्र द्रव्य है या नहीं? इस प्रश्न पर लगभग ईसा की दूसरी शताब्दी से लेकर सातवीं शताब्दी तक यह विवाद चलता रहा है, जिसके संकेत हमें तत्त्वार्थसूत्र के भाष्य मान्य पाठ से लेकर विशेषावश्यक भाष्य तक अनेक ग्रन्थों में मिलते है। किन्तु ऐसा लगता है कि सातवीं शताब्दी के पश्चात् यह विवाद समाप्त हो गया और श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में षद्रव्यों की मान्यता पूर्णतः स्थिर हो गई। उसके पश्चात् उसमें कहीं कोई परिवर्तन नहीं हुआ। ये षद्रव्य निम्न हैं- धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, पुद्गल और काल। आगे चल कर इन षद्रव्यों का वर्गीकरण अस्तिकाय-अनास्तिकाय, चेतन-अचेतन अथवा मूर्तअमूर्त के रूप में किया जाने लगा। अस्तिकाय और अनस्तिकाय द्रव्यों की अपेक्षा से धर्म-अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल- इन पांच को अस्तिकाय और काल को अनस्तिकाय द्रव्य माना गया। चेतन-अचेतन द्रव्यों की अपेक्षा से धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल को अचेतन द्रव्य और जीव को चेतन द्रव्य माना गया है। मूर्त और अमूर्त द्रव्यों की अपेक्षा से जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल को अमूर्त द्रव्य और पुद्गल को मूर्त द्रव्य माना गया है। __ जैसा कि हम पूर्व में कह चुके हैं कि विद्वानों ने यह माना है कि जैन दर्शन में द्रव्य की अवधारणा का विकास न्याय-वैशेषिक दर्शन से प्रभावित है। जैनाचार्यों ने वैशेषिक दर्शन की द्रव्य की अवधारणा को अपनी पंचास्तिकाय की अवधारणा से समन्वित किया है। अतः जहां वैशेषिक दर्शन में नौ द्रव्य माने गये थे वहां जैनों ने पंचास्तिकाय के साथ काल को जोड़कर मात्र छः द्रव्य ही स्वीकार किए। इनमें भी जीव (आत्मा) आकाश और काल- ये तीन द्रव्य दोनों ही परम्पराओं में स्वीकृत रहे। पंचमहाभूतों जिन्हें वैशेषिक दर्शन में द्रव्य माना गया है, में आकाश को छोड़कर शेष पृथ्वी, अप् (जल), तेज (अग्नि) और मरूत् (वायु) इन चार द्रव्यों को जैनों ने स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर जीव द्रव्य के ही भेद माना है। दिक और मन- इन दो द्रव्यों को जैनों ने स्वीकार नहीं किया, इनके स्थान पर उन्होंने पाँच अस्तिकायों में से धर्म, अधर्म और पुद्गल ऐसे अन्य तीन द्रव्य निश्चित किए। यह भी ज्ञातव्य है कि जहां अन्य परम्पराओं में पृथ्वी, अप्, वायु और अग्नि इन चारों को जड़ माना गया था वहां जैनों ने इन्हें चेतन माना। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैन दर्शन की 6 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 131 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524627
Book TitleTulsi Prajna 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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