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धारणा में ज्ञान इतना दृढ़ हो जाता है कि वह स्मृति का कारण बनता है। इसीलिए कहा भी गया है- "स्मृतिहेतुर्धारणा।" धारणा के तीन प्रकार हैं
(1) अविच्युति, (2) वासना, (3) स्मृति। डॉ. कलघाटगी (Kalghatgi) ने स्मृति की दो Conditions बतलाई हैं - (1) The external conditions Consisting of the environmental
factors, (2) Internal conditions connected with the conative urge. जैन धर्म
की स्मृतिपरक व्याख्या से हम The laws of association in psychology से तथा आन्तरिक स्मृति की Mcdougall के View of Memory से
काफी हद तक तुलना कर सकते हैं। ज्ञान के पांच प्रकार जैन ग्रन्थों में वर्णित हैं। इन्द्रिय और मन के द्वारा ज्ञेय को जानने की क्षमता मतिज्ञान और श्रुतज्ञान कहलाती है। यह परोक्ष ज्ञान है। इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मूर्त ज्ञेय को जानने की क्षमता अवधि एवं मनः पर्यवज्ञान कहलाती है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान Supernormal experience है। मनः पर्यवज्ञान- मानसिक अवस्थाओं का सूक्ष्म ज्ञान करता है। इसकी तुलना Telepathy से की जा सकती है। मनोवैज्ञानिक McDaugull के शब्दों में extra sensory percetion like clairvoyance and telepathy seems also in fair way established. ' जैन धर्म का सूक्ष्मतम विश्लेषण प्रस्तुत कहता है।
___ प्रमाण मीमांसा में कहा गया है- 'सर्वार्थग्रहणं मनः । मन एक सूक्ष्म इन्द्रिय है जो सभी इन्द्रियों के सभी विषयों का ग्रहण करता है। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण इसे quasisense organ नोइन्द्रिय भी कहा है। भगवती' में 'मणिज्जमाणे मणे' कहा है। मनन के समय ही मन होता है। यद्यपि यह परिभाषा स्वरूप दृष्टि से सही है पर विषयवस्तु की दृष्टि से उसका मनन वार्तमानिक, स्मरण अतीतकालिक, कल्पना भविष्यकालिक, संज्ञा उभयकालिक, चिन्ता-अभिनिबोध और शब्दज्ञान त्रैकालिक होता है। मन के दो भेद हैं -
(1) द्रव्य मन Material Phase, (2) भाव मन Psychic,
द्रव्य मन पौद्गलिक है और भाव मन लब्धि और उपयोग रूप है। C.D. Broad ने मन के शारीरिक एवं मानसिक factor माने हैं। इसी प्रकार Mcdougall ने भी Mental structure and mental activity के facts में अन्तर माना है। जैन धर्म का मनोवैज्ञानिक पक्ष अध्यात्म के मन के विश्लेषण पर विशेष ध्यान देता है।
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2005
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