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________________ अपेक्षा से जुड़े हर सुख का दूसरा पहलू दुःख, उसके साथ जुड़ा हुआ है । शाश्वत, निरपेक्ष या अनाबाध सुख की कल्पना भी वहां नहीं की जा सकती। नकारात्मक सुख को स्पष्ट करने वाला है शेखसादी का यह कथन - " मैंने सुना कि एक बुजुर्ग ने एक बकरी को भेड़िए के पंजे से छुड़ा लिया। रात को उसके गले पर छुरी फेर दी । बकरी कहने लगी- एक जालिम ! भेड़िए के पंजे से तूने मुझे छुड़ा लिया पर जब गौर किया तो मेरी समझ में आयातू खुद भेड़िया था । जैन दर्शन इन्द्रिय विषय की आपूर्ति से होने वाले सुख की तुलना किंपाक फल से करता है। किंपाक फल खाने में तो स्वादिष्ट लेकिन परिणाम में मृत्युदायी है । दीर्घकालिक चिंतन करने वाला व्यक्ति कभी आपात्भद्र में नहीं उलझता । वह परिणामदर्शन करता है, परिणमभद्र की कामना करता है। वास्तविक सुख के अवबोध से अनजान व्यक्ति ही पदार्थ आवश्यकता, उत्पादन और मांग की आपूर्ति की दिशा में दौड़ता है। यद्यपि आज का अर्थशास्त्र भी उत्पादन आपूर्ति के साथ जुड़े सुख के भ्रमजाल व अपनी अपर्याप्तता से अनजान नहीं। परिणाम दर्शन के साथ कई समस्याओं का सामना भी वह कर रहा है। उत्पादन क्या, कैसे और किसके लिए के साथ ही कुछ और प्रश्न भी जुड़े हैं । यदि कहें, जो भी उत्पादन किया जा रहा है- समाज और व्यक्ति के लिए किया जा रहा है तो क्या व्यक्ति और समाज के अतिरिक्त किसी का कोई महत्त्व नहीं? क्या आज के व्यक्ति और समाज के आने वाले कल के लिए कोई जिम्मेवारी नहीं ? असीमित इच्छाओं की बात भी कहां तक सही हो सकती है? एक बार खाना खाया और पेट भर गया तो क्या हम उसी समय फिर खाने की इच्छा करेंगे? कदापि नहीं । बहुत अधिक भी उतना ही बुरा है जितना बहुत कम । अर्थसंग्रह में संदर्भ में भी अनंत इच्छा, असीमित लोभ रखने की क्या औचित्यतता ! विनोबा भावे का अभिमत इस संदर्भ में आदरणीय है- 'फुटबाल की तरह धन का खेल होना चाहिए। फुटबाल को कोई अपने पास नहीं रखता । वह जिसके पास पहुंचती है, वही उसे फैंक देता है । पैसे को इसी तरह आगे बढ़ाते जाइए तो समाज में उसका प्रवाह बहता रहेगा और समाज का आरोग्य कायम रहेगा।' इच्छाओं और आवश्यकताओं के साथ उत्पादन वृद्धि की बात को जोड़ा जाता है । लेकिन क्या वस्तु आपूर्ति ही मात्र इच्छा है? वस्तुओं से संबंधित चाह के कई तरीके हो जाते हैं। चाह का अर्थ है- उसे अपने लिए विनियोजित करना चाहता हूँ । चाह, उसे देखने या उससे आनन्दित होने की नहीं, बल्कि उसका वरण एक सम्पत्ति के रूप में करने की है। वस्तुओं का धारण व्यामोह बन जाता है जब हम वस्तु के स्वामित्व से उसके साथ एकात्मीयता तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - जून, Jain Education International 2005 For Private & Personal Use Only 51 www.jainelibrary.org
SR No.524623
Book TitleTulsi Prajna 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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