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प्राधान्य के कारण नानाविध परिवर्तनों में से गुजरता है। तात्त्विक रूप से चित्त अचेतन है, यद्यपि निकट स्थिति आत्मा के प्रतिबिम्ब से सचेतन (वत्) हो जाता है।
चित्त को व्याख्यायित करते हुए योगभाष्य में कहा गया है - 'चित्तं हि प्रख्याप्रवृत्तिस्थितिशीलत्वात् त्रिगुणम्'' चित्त ज्ञान, क्रिया एवं स्थिति रूप होने से त्रिगुण है। सत्त्वगुण के कारण चित्त ज्ञानवान्, रजोगुण के कारण क्रियावान एवं तमोगुण के कारण स्थितिवान है। प्रख्या का अर्थ है तत्त्वज्ञान । इसके द्वारा उपलक्षण से सारे सात्त्विक गुणों का कथन हो गया है। प्रवृत्ति का अर्थ है कर्म, इसके द्वारा सारे राजस गुण गृहीत हो गये हैं तथा स्थिति अर्थात् गतिशून्यता इसके द्वारा सारे तामस गुणों का ग्रहण हो गया है।
"प्रख्याग्रहणमुपलक्षणार्थे : तेनान्येऽपि सात्त्विका:प्रसादलाघवप्रीत्यादयः सूच्यन्ते, प्रवृत्त्या च परितापशोकादयो राजसाः प्रवृत्तिविरोधी तमोवृत्तिधर्मः स्थितिः, स्थितिग्रहणाद् गौरवावरणदैन्यादय उपलक्ष्यन्ते" विविधता का हेतु
संसार में परिव्याप्त सम्पूर्ण चैतसिक एवं भौतिक पदार्थों का कारण प्रकृति के सत्त्व, रज एवं तमोगुण ही हैं। इन तीनों गुणों की पारस्परिक मिश्रण की विविधता ही जगत के वैचित्र्य का कारण है। पुरुष निर्गुण होता है। गुणों की साम्यावस्था प्रलय की अवस्था है एवं उनकी विक्षोभावस्था सृष्टि का आधार है। पुरुष के अतिरिक्त संसार की समस्त वस्तुओं में ये तीनों गुण न्यूनाधिक रूप में उपलब्ध होते हैं। गुणों की अभिव्यक्ति
प्रकृति के इन तीनों गुणों का प्रकटन आन्तरिक एवं बाह्य दोनों जगत् में होता है। रजोगुण बाह्य जगत् में क्रिया एवं शक्ति के रूप में अभिव्यक्त होता है। महत्त्वाकांक्षा, प्रयत्न, क्रियाशीलता आदि के माध्यम से व्यक्ति में अभिव्यक्त होता है। व्यक्ति में प्राप्त होने वाली चिंता, संवेग, बुराई और सब प्रकार के दुःखों का कारण यह रजोगुण ही है।22 सत्त्वगुण भौतिक जगत् में हल्कापन, चमकीले रंग, हवा, प्रकाश एवं हल्के भोजन के रूप में अभिव्यक्त होता है तथा बुद्धिमत्ता, गुण, प्रसन्नता आदि के रूप में व्यक्ति में अभिव्यक्त होता है। बाह्य जगत् में तमोगुण, अन्धकार, भारीपन एवं कठोरता के रूप में अभिव्यक्त होता है तथा व्यक्ति के स्तर पर भय, मूर्खता, अविवेक, आलस्य आदि के रूप में प्रस्तुत होता है।24
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005
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