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________________ त्रिगुण का आधार : विकास की यात्रा - समणी मंगलप्रज्ञा भारतीय दर्शन को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- वैदिक और अवैदिक। सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, वेदान्त-मीमांसक, ये छह वैदिक दर्शन हैं तथा जैन, बौद्ध एवं चार्वाक ----ये तीन अवैदिक दर्शन हैं। सांख्य वैदिक धारा का मुख्य दर्शन है। सांख्य शब्द की व्युत्पत्ति __ सांख्य दर्शन का नामकरण संख्या अथवा ज्ञान के आधार पर हुआ है, ऐसा विद्वानों का अभिमत है। सांख्य शब्द गणना एवं ज्ञान - दोनों का वाचक है। सांख्य के विद्वान् तत्त्वों की गणना करते हैं, अतः इसे सांख्य कहते हैं"संख्यायन्ते तत्त्वानि येन तत् सांख्यम्" सम्यक् प्रकार से ज्ञान अर्थात् प्रकृतिपुरुष का विवेकात्मक जो विशिष्ट ज्ञान है वह सांख्य है- “सम्यक् ख्यानं ज्ञानं संख्यैव सांख्यं प्रकृति-पुरुष विवेकात्मकं विशिष्टं ज्ञानम्"। देवतीर्थ स्वामी के अनुसार क्रमपूर्वक विचारणा सांख्य है तथा उसके आधार पर लिखे गए शास्त्र को सांख्य कहते हैं- "सम्यक् क्रमपूर्वकं ख्यानं कथनं यस्याः सा सांख्या क्रमपूर्वकविचारणा, तामधिकृत्य कृतं शास्त्रं सांख्यम्"। सांख्य स्वीकृत तत्त्व सांख्य दर्शन में मूल दो तत्त्व माने गए हैं — प्रकृति एवं पुरुष। ये दोनों तत्त्व अनादि हैं। "प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यानादी उभावपि" (गीता-13/ 19)। इन दो तत्त्वों का विस्तार करने पर तत्त्व की संख्या पच्चीस हो जाती है। पुरुष का कोई विस्तार नहीं होता। विस्तार प्रकृति का होता है। प्रकृति का ही विस्तार महत्, अहंकार, मन, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंच कर्मेन्द्रियाँ, पंच तन्मात्रा और पंचभूत --- ये 23 तत्त्व हैं तथा इनमें प्रकृति एवं पुरुष को मिला देने से तत्त्वों की संख्या पच्चीस हो जाती है। सांख्यकारिका में इन पच्चीस तत्त्वों को चार भागों में तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005 - 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524622
Book TitleTulsi Prajna 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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