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वस्तुतः पदार्थ न ज्ञान के पास आते हैं, न ज्ञान पदार्थ के पास जाता है। जैसे दपर्ण के सामने जो भी पदार्थ हो वे एक दूसरे के पास गए बिना भी उसमें प्रतिबिम्बत होते हैं, उसी तरह विश्व में जितने भी पदार्थ हैं वे सब ज्ञान में प्रतिबिम्ब होते हैं। ___इस तरह जैन-धर्म-दर्शन में ज्ञान की स्वरूप विवेचना अति सूक्ष्म और गहन रूप में प्रस्तुत की गई है। इसलिए रत्नत्रय में सम्यग्ज्ञान को अति महत्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि ज्ञान रूपी प्रकाश ही ऐसा उत्कृष्ट प्रकाश है, जिसका हवा आदि कोई पदार्थ प्रतिघात (विनाश) नहीं कर सकता। सूर्य का प्रकाश तो तीव्र होते हुए भी अल्प क्षेत्र को ही प्रकाशित करता है, किन्तु यह ज्ञान प्रदीप समस्त जगत् को प्रकाशित करता है अर्थात् समस्त वस्तुओं में व्याप्त ज्ञान के समान अन्य कोई प्रकाश नहीं है। इसलिए इसे द्रव्य स्वभाव का प्रकाशक कहा गया है। सम्यग्ज्ञान से तत्त्वज्ञान, चित्त का निरोध तथा आत्मविशुद्धि प्राप्त होती है। ऐसे ही ज्ञान से जीव राग से विमुख तथा श्रेय में अनुरक्त होकर मैत्रीभाव से प्रभावित होता है। भगवती आराधना (गाथा 771) में कहा गया है कि ज्ञान रूपी प्रकाश के बिना मोक्ष का उपाय भूत चारित्र, तप, संयम आदि की प्राप्ति की इच्छा करना व्यर्थ है। इस तरह सम्यग्ज्ञान संसारी जीवों को अमृत रूप जल से तृप्त करने वाला होता है। इसलिए किसी भी साधक के लिए सम्यग्दर्शन की तरह सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति भी आवश्यक है, तभी उसका चारित्र सम्यक् चारित्र की कोटि में माना है और ऐसा ही रत्नत्रय मोक्षमार्ग को प्रशस्त करता है।
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 127
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