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जीवों में एक साथ पांच ज्ञान सम्भव नहीं है। अपितु एक साथ एक आत्मा में एक से लेकर चार ज्ञान तक ही हो सकते हैं। एक ज्ञान होगा तो मात्र केवलज्ञान रहता है, क्योंकि वह निरावरण और क्षायिक है। इसके साथ अन्य चार सावरण और क्षायोपशिक ज्ञान नहीं रहते हैं। दो हो तो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान, तीन हो तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान या मनः पर्ययज्ञान तथा चार हो तो मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यय ज्ञान सम्भव हैं। इसलिये पाचों ज्ञान एक साथ नहीं हो सकते। आचार्य उमास्वामी ने भी तत्त्वार्थसूत्र में कहा है- एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्थ्यः अर्थात् एक जीव में एक साथ एक को आदि लेकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं। पाँच ज्ञान एक साथ किसी भी जीव में सम्भव ही नहीं है। ज्ञान के पूर्वोक्त पाँच भेदों में क्रमशः प्रत्येक का स्वरूप इस प्रकार है :1. मतिज्ञान
ज्ञान के पाँच भेदों में प्रथम मतिज्ञान है जो 'तदिन्द्रियानिद्रिय निमित्तम् अर्थात् इन्द्रिय और मन की सहायता से पदार्थों को जानना है, वह मतिज्ञान है। दर्शनपूर्वक अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के क्रम से मतिज्ञान होता है। इस अभिनिबोधिक ज्ञान भी कहा जाता है। वस्तुतः मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होने वाली मति, स्मृति, संज्ञा , चिन्ता और अभिनिबोध आदि मतिज्ञान की अवस्थाओं का अनेक रूप से विवेचन मिलता है। जो मतिज्ञान के विविध आकार और प्रकारों का निर्देशमात्र है। वह निर्देश भी तत्त्वाधिगम के उपयोगों के रूप में हैं, इसीलिए तत्त्वार्थसूत्रकार ने कहा - 'मतिः स्मृतिः संज्ञाचिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् (1/13)
. सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि मति, स्मृति, संज्ञा,चिन्ता और अभिनिबोध - ये मतिज्ञान के ही नामान्तर इसलिये हैं, क्योंकि ये मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम रूप अन्तरंग निमित्त से उत्पन्न हुए उपयोग को विषय करते हैं तथा मननं मतिः, स्मरणं स्मृतिः, संज्ञानं संज्ञा, चिन्तनं चिन्ता, अभिनिबोधनं अभिनिबोधः- इस प्रकार की व्युत्पत्ति की है। तदनुसार अतीत अर्थ के स्मरण करने या पहले अनुभव की हुई वस्तु का स्मरण 'स्मृति' है। पहले की हुई और वर्तमान में अनुभव की जाने वाली वस्तु की एकता संज्ञा' है अर्थात् 'यह वही है', यह उसके सदृश है, इस प्रकार का पूर्व
और उत्तर अवस्था में रहने वाली पदार्थ की एकता सदृशता आदि ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। इसे ही दर्शन क्षेत्र में प्रत्यभिज्ञान इस नाम से जाना जाता है, क्योंकि यह अतीत और वर्तमान उभय विषयक है। भावी वस्तु की विचारणा या चिन्तन को 'चिन्ता' कहते है।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005
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