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________________ वैसे आत्मा में अनन्त गुण हैं किन्तु इन अनन्त गुणों में एक ज्ञान गुण ही ऐसा है जो 'स्व- पर' प्रकाशक है जैसे दीपक अपने को भी प्रकाशित करता है और अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है । उसी प्रकार ज्ञान अपने को भी जानता है और अन्य पदार्थों को भी जानता है । इसी से ज्ञान गुण का सविकल्प (साकार) तथा शेष सब गुणों को निर्विकल्प (निराकार ) कहा है। सामान्यतः निर्विकल्प का कथन करना शक्य नहीं है किन्तु ज्ञान ही एक ऐसा गुण है जिसके द्वारा निर्विकल्प का कथन भी किया जा सकता है । इस तरह यदि ज्ञान गुण न हो तो वस्तु को जानने का दूसरा कोई उपाय नहीं है, इसलिये ज्ञान की उपमा प्रकाश से दी जाती है। प्रकाश के अभाव रूप अन्धकार की जो स्थिति है वही स्थिति अज्ञान की है। सम्यक् और मिथ्या : ज्ञान के दो रूप आत्मा का गुण तो ज्ञान है किन्तु वह सम्यक् भी होता है और मिथ्या भी होता है । संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को मिथ्याज्ञान कहते हैं । यहाँ यह भी विशेष ध्यातव्य है कि जैनधर्म में जैसी वस्तु है उसे उसी रूप में जानने वाले को भी मिथ्या कहा है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि यदि वस्तु का स्वरूप जैसा का तैसा समझ और जान रहा है किन्तु वस्तु स्वरूप की यथार्थ प्रतीति नहीं होने से ऐसे मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भी यथार्थ नहीं माना जायेगा | जैनदर्शन पुस्तक (पृ. 188 ) में पं. महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य के शब्दों में 'मिथ्यादर्शन वाले का व्यवहार सत्य - प्रमाण ज्ञान भी मिथ्या है और सम्यग्दर्शन वाले के व्यवहार में असत्य अप्रमाण ज्ञान भी सम्यक् है । तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि का प्रत्येक ज्ञान मोक्ष मार्गोपयोगी होने के कारण सम्यक् है और मिथ्या दृष्टि का प्रत्येक ज्ञान संसार में भटकने वाला होने से मिथ्या है। इस तरह जो ज्ञान हेय (त्याज्य) को हेय रूप में और उपादेय (ग्रहण योग्य) को उपादेय रूप में जानता है, वही सच्चा ज्ञान है किन्तु जो हेय को उपादेय और उपादेय को हेय रूप में जानता है वह ज्ञान कभी सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता । ऐसे ज्ञान को मिथ्या कहा है । 44 ज्ञान के होते हुए भी जो अपने आत्मा का हित-अहित का विचार करके हित में नहीं लगा और अहित से नहीं बचा, उसका ज्ञान सम्यक् ज्ञान कैसे कहा जा सकता है? वस्तुतः मोह के एक भेद मिथ्यात्व का एक सहभावी ज्ञान भी मिथ्या कहलाता है। जब तक मिथ्या भाव दूर नहीं हो जाता, तब तक ज्ञान आत्मा को उसके हित में नहीं लगा सकता । अतः मिथ्यादृष्टि का यथार्थ ज्ञान भी अयथार्थ ही कहा जाता है। सम्यग्दर्शन के प्रकट होने के साथ ही पूर्व का मिथ्याज्ञान सम्यक हो जाता है और सम्यग्दर्शन के अभाव 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only प्रज्ञा अंक 127 www.jainelibrary.org
SR No.524622
Book TitleTulsi Prajna 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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