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________________ सन्दर्भ : 1. समणे भगवं महावीरे नाए, नायपुत्ते, नायककुलचंदे, विदेहे, विदेहदिन्ने, विदेहजच्चे विदेह सूमाले तीसं वासाइं विदेहंसि कटु कल्पसूत्र 110 (प्राकृत भारती संस्करण पृ. 160) 2. वहीं पृ. 160 3. णायसंडवणे उज्जागे जेणेव असोकवरपायवे - कल्पसूत्र 113 (प्राकृत भारती संस्करण पृ. 170) एवं से उदाहु अणुत्तरणाणी अणुत्तरदसी अणुत्तरणाणदंसणघरे। अरहा- णायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए॥ - सूत्रकृतांक 1/2/3/22 . 4. देखें- कल्पसूत्र 58, 67, 69 (प्रा. भा. सं. पृ. 96, 114 आदि) 5. देखें - बुद्धकालीन भारतीय भूगोल - भरतसिंह पृ. 313 6. कल्पसूत्र 119 (प्राकृत भारती संस्करण पृ. 184) 7. ज्ञातव्य है आचारांग सूत्र में भी दीक्षा ग्रहण करते समय महावीर यह निर्णय लेते है कि मैं सबके प्रति क्षमाभाव रखूगा-- (सम्मं सहिस्सामि इवमिस्सामि)। 8. आचारांग 1/174, 5/55, 6/30 9. वही, 1/37, 68 डॉ. सागरमल जैन 35 ओसवालसेरी शाजापुर (म.प्र.) 465 001 12 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524622
Book TitleTulsi Prajna 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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