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________________ यहाँ एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गणनी ज्ञानमति माताजी ने भी कुण्डलपुर का पक्ष लेते हुए भी उसे विदेह में स्थित तो माना ही है। अब यह प्रश्न उठता है कि क्या दिगम्बर परम्परा के द्वारा मान्य नालंदा के समीप स्थित कुण्डलपुर अथवा श्वेताम्बर परम्परा के द्वारा मान्य जमुई के निकटवर्ती लछवाड़ को विदेह क्षेत्र में स्थित माना जा सकता है? प्राचीन भारत के भूगोल का अध्ययन करने पर यह बात बहुत स्पष्ट हो जाती है कि वर्तमान कुण्डलपुर और लछवाड़ दोनों ही मगध क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं। वे किसी भी स्थिति में विदेह क्षेत्र में स्थित नहीं माने जा सकते, क्योंकि प्राचीन भारतीय भूगोल के अनुसार विदेहक्षेत्र की सीमा स्पष्ट रूप से निर्धारित थी। इसकी पश्चिमी सीमा गण्डकी नदी (वर्तमान धाधरा) और पूर्वी सीमा कोशिकी नदी थी। दक्षिण में विदेह क्षेत्र की सीमा का निर्धारण गंगा नदी और उत्तर में हिमालय पर्वत निर्धारित करता था। यदि महावीर के जन्म स्थान की खोज कहीं करनी होगी तो इस विदेह क्षेत्र की सीमा में ही करनी होगी और यह एक सुनिश्चित सत्य है कि नालंदा समीपस्थ कुण्डलपुर और जमुई के समीप स्थित लछवाड़, दोनों ही विदेह क्षेत्र की सीमा के बाहर है और मगध क्षेत्र की सीमा के अन्तर्गत आते हैं, अतः साहित्यिक प्रमाण स्पष्ट रूप से वैशाली के निकट वर्तमान वासुकुण्ड के पक्ष में ही जाते हैं। पुरातात्विक दृष्टि से जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया कि नालंदा, जमुई और वैशाली तीनों ही अपना अस्तित्व ई.पू. 6वीं शताब्दी में रखते हैं। यह भी सत्य है कि भगवान महावीर जब भी राजगृही आये हैं और यहां वर्षावास का निश्चय किया है तो उन्होंने अपना चातुर्मास स्थल नालंदा को ही चुना। पुरातात्विक साक्ष्यों से यह भी सिद्ध है कि महावीर के काल में नालंदा राजगृही का एक उपनगर या सनिवेश माना जाता था। वर्तमान में जो बड़गांव कुण्डलपुर में दिगम्बर और श्वेताम्बर मंदिर है उनमें स्थित प्रतिमाएं सोलहवीं शताब्दी के पूर्व की नहीं हैं। नालंदा की प्राचीनता के संबंध में जो पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध होते हैं वे अधिकांश बौद्ध परम्परा से ही संबद्ध हैं। जैन परम्परा से संबंध अभी तक कोई भी ऐसा पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ है जो महावीर के जन्मस्थल पर स्थित किसी प्राचीन मंदिर आदि की अवस्थिति को सिद्ध करे। इसी प्रकार जमुई के निकट स्थित लछवाड़ में प्राचीन अवशेष उपलब्ध होते हैं। लेखक स्वयं जिस समय लछवाड़ गया था, उस समय वहां नये मंदिर के निर्माण के लिये प्राचीन मंदिर को गिरा दिया गया था। यद्यपि जिस मंदिर को गिराया गया था, वह तो अतिप्राचीन नहीं था, किन्तु उसके नीचे जो चबूतरा था उस चबूतरे में तथा उस चबूतरे को खोदने पर निकली सामग्री में लेखक को कुछ प्राचीन ईंटों के खण्ड उपलब्ध हुए थे जो कम से कम मौर्य काल के पश्चात् के और गुप्त काल के पूर्व के थे। मंदिर में जो मूलनायक महावीर स्वामी की प्रतिमा थी, वह स्पष्ट रूप से 8 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524622
Book TitleTulsi Prajna 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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