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________________ 74 हंता अत्थि । कयरे णं भंते! ते अच्चित्ता वि पोग्गला ओभासंति ? उज्जोवेंति ? तवेंते ? पभासेंति ? कालोदाई! कुद्धस्स अणगारस्स तेय-लेस्या निसट्टा समाणी दूरं गता दूरं निपतति, देसं गता देसं निपतति, जहिं जहिं च णं सा निपतति तहिं तहिं च णं ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासेंति । एतेणं कालोदाई। - ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासेंति । (भगवई 7/229, 230 ) भंते! क्या अचित पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं ? उद्योतित करते हैं ? तप्त करते हैं ? प्रभासित करते हैं ? हां, करते हैं । भंते! वे कौन-से अचित्त पुद्गल वस्तु को अवभासित करते हैं ? उद्योतित करते हैं ? तप्त करते हैं ? प्रभासित करते हैं ? कालोदाई ! क्रुद्ध अनगार ने तेजोलेश्या का निसर्जन किया, वह दूर जाकर दूर देश में गिरती है, पार्श्व में जाकर पार्श्व देश में गिरती है। वह जहां-जहां गिरती है, वहां-वहां उसके अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं, उद्योतित करते हैं, तप्त करते हैं और प्रभासित करते हैं । कालोदाई ! इस प्रकार से अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं, उद्योतित करते हैं, तप्त करते हैं और प्रभासित करते हैं । " कुछ विचारक होते हैं - इसमें विद्युत् का नाम नहीं है। प्रश्न नाम होने का नहीं है। मूल प्रतिपाद्य यह है- 'अचित्त पुद्गल प्रकाश करते हैं, तप्त करते हैं।' उस स्थिति में यह व्याप्ति नहीं बनती कि जिसमें दाहकता है, प्रकाश है, ताप है, वह सचित्त ही होता है। " (b) भगवती सूत्र, शतक 15, सूत्र 121 'अज्जोति ! समणे भगणं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी- जावतिए णं अज्जो ! गोसालेणं खत् म वहाए सरीरगंसि तेये निसट्टे से णं अलाहि पज्जते सोलसण्हं जणवयाणं, तं जहा1. अंगाणं, 2. बंगाणं, 3. मगहाणं, 4. मलयाणं, 5. मावगाणं, 6. अच्छाणं, 7. वच्छाणं, 8. कोच्छाणं, 9. पाढाणं, 10. लाढाणं, 11. वज्जीणं, 12. मोलीणं, 13. कासीणं, 14. कोसलाणं, 15. अवाहाणं, 16. सुंभुत्तराणं घाताए वाहए उच्छादणयाए भासीकरणयाए।" 44 (c) आचार्य महाप्रज्ञ, पूर्व उद्धृत लेख, पृष्ठ 19 "इंदभूती नाम अणगारे गोयमसगोते..... संखित्तविउलतेयले से.... । (भगवती 1/9) संक्षिप्ता - शरीरान्तर्लीनत्वेन ह्रस्वतांगता, विपुला - विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाण-क्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात्तेजोलेश्या - विशिष्टतपोजन्यलब्धि विशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा । (भ.वृ. 1/9) वृत्तिकार ने तेजोलेश्या का अर्थ तेजो-ज्वाला किया है। यहां तेजोलेश्या का प्रयोग एक ऋद्धि (लब्धि या योग विभूति) के अर्थ में हुआ है। ठाण के अनुसार यह ऋद्धि तीन कारणों से उपलब्ध होती है। इसकी तुलना हठयोग की कुंडलिनी तुलसी प्रज्ञा अंक 124 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524619
Book TitleTulsi Prajna 2004 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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