SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिणमन मानना चाहिए। पर बादल को तो वैस्रसिक परिणमन में माना है। तब फिर अन्य पौद्गलिक परिणमनों को वैत्रसिक मानने में कहाँ आपत्ति है ? षट्खंडागम में सादि वैस्त्रसिक बंध की चर्चा में इन्हें वैखसिक ही माना गया है, जिसकी चर्चा हम कर चुके हैं । (देखें, प्रथम भाग, प्रथम प्रभाग) इसलिए यह नियम बतलाना उचित नहीं है कि जीव के द्वारा परिणत होने पर ही पुद्गल प्रकाश आदि करते हैं । प्रश्न में उद्धृत भगवती 1-10-380 के पाठ से स्पष्ट है कि अजीव पुद्गलों में स्वयं यह शक्ति है । " तैजस वर्गणा को तैजस शरीर तक सीमित करना संगत नहीं है। जीव तैजस वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर तैजस शरीर में उनका परिणमन करता है, किंतु तैजस वर्गणा के समस्त पुद्गलों का जीव के द्वारा सदा-सर्वदा ग्रहण और परिणमन आवश्यक नहीं हैं। ' 46 यहां यह कहना कि "बिजली इत्यादि किसी दूसरे पदार्थ का निर्जीव के रूप में उल्लेख नहीं है" तर्क-संगत नहीं है । आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने लिखा है- " तर्क की अपनी मर्यादा होती है। इस विषय में हरिभद्रसूरि के षड्दर्शन की वृत्ति में उद्धृत श्लोक बहुत महत्त्वपूर्ण है - आग्रही बत निनीषति युक्तिः, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिः, यत्र तत्र मतिरेति निवेषम् ॥ अचित्त पुद्गल प्रकाश करते हैं। इसमें विद्युत् का उल्लेख नहीं है, यह प्रश्न यहाँ प्रासंगिक नहीं है । प्रासंगिक उतना ही है कि अचित्त पुद्गल प्रकाश करते हैं । वे जीव के द्वारा गृहीत हो चुके हैं, इसलिए प्रकाश करते हैं - यह तर्क भी संगत नहीं है। प्रकाश, आतप, उद्योत, छाया-ये सब पुद्गल के लक्षण हैं। शब्द-बंध - सौक्ष्म्य- स्थौल्य - संस्थान -भेद - तमश्छायातपोद्योतवन्तश्च । सद्दधयारउज्जोओ पहा छाया तवे इ वा । वण्णरसगंधफासा पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥ (उत्तरज्झयणाणि 28, 12) ( तत्त्वार्थवार्तिक 5,24) अंधकार पुद्गल का लक्षण है, वह जीव के द्वारा गृहीत अंधकार नहीं बनता । प्रकाश पुद्गल का लक्षण है, वह जीव के द्वारा गृहीत होकर प्रकाश बनता है, यह कोई नियम नहीं है। पुद्गलों का परिणमन जीव के प्रयोग से भी होता है और स्वभाव से भी होता है।' * 147 यदि उक्त तर्क को माना जाए, फिर तो आगमों में वर्तमान युगीन विज्ञान आदि की सारी बातें आनी चाहिए थी। सर्वज्ञ होने के नाते उनसे वर्तमान की सारी घटनाएं छिपी नहीं है। फिर उन सबका वर्णन क्यों नहीं मिलता ? (क्रमशः ) 59 तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524619
Book TitleTulsi Prajna 2004 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy