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________________ सामग्री नहीं मिलती। तार की इलेक्ट्रीसीटी को उपयुक्त संयोग मिलने पर ठंडा करने के लिए भी काम में लिया जा सकता है। अपने आप में वह नहीं जलाती है, न ठंडा करती है। इलेक्ट्रीसीटी के हजारों उपयोग होते हैं, जो अग्नि द्वारा नहीं किये जाते। लक्षण के आधार पर भी इलेक्ट्रीसीटी को अग्नि सिद्ध नहीं किया जा सकता। यदि दहन, पचन, प्रकाशन आदि इलेक्ट्रीसीटी के लक्षण मान लिया जाये तो सदैव उनकी प्राप्ति उसमें होनी चाहिए पर ऐसा नहीं है। केवल अमुक-अमुक परिस्थिति में ही इन कार्यों में उसका उपयोग किया जा सकता है। शेष कार्यों में उसका उपयोग करते समय इलेक्ट्रीसीटी न जलाती है, न पकाती है, न प्रकाश करती है। विद्युत्-ऊर्जा का गति-ऊर्जा, ध्वनि-ऊर्जा आदि में परिवर्तन स्पष्ट है। अग्नि की व्याख्या में जो बताया गया है, वह इलेक्ट्रीसीटी पर तभी लागू होता है जब इलेक्ट्रीसीटी को अग्नि के रूप में रूपान्तरित किया जाए (जैसे-विद्युत् के चूल्हे के रूप में) अन्यथा नहीं। प्रश्न-19- "यहाँ एक दूसरी बात ध्यान में रखने योग्य है कि कोई भी वस्तु पुद्गल से बनी है, इसलिए निर्जीव है-यह सिद्ध नहीं हो सकता। हमारा शरीर भी औदारिक वर्गणा के पुद्गलों से बना है। तो क्या वह सर्वथा निर्जीव है या फिर वह पुद्गलों का एक जीवयुक्त समूह है? इसलिए वर्ण इत्यादि पुद्गल के लक्षणों से युक्त होने के कारण विद्युत् प्रकाश पौद्गलिक है-ऐसा स्वीकार किया जाए तब भी उसकी निर्जीवता सिद्ध नहीं होती। इसके विपरीत-'उन पुद्गलों को बल्ब में किसने इकट्ठा किया?' यह प्रश्न खड़ा होता है। उसका कर्ता जीव ही हो सकता है। इसलिए वहाँ जीव की हाज़री अवश्य है ही। इसी प्रकार जुगनू का प्रकाश चाहे निर्जीव हो किन्तु जुगनू स्वयं तो जीव ही है। वरना मृत जुगनू क्यों सजीव जुगनू की भाँति नहीं चमकता? तथा चंद्रप्रकाश (अर्थात् चन्द्रमा का प्रकाश) निर्जीव होते हुए भी चन्द्रबिंबगत पृथ्वीकाय के जीवों के अधीन है। ठंडी चाँदनी चंद्रबिंबगत पृथ्वीकाय जीवों के उद्योतनामकर्म को आभारी है। पन्नवणासूत्र व्याख्या में श्रीमलयगिरिसूरिजी ने बताया है कि-'यदुदयात् जन्तुशरीराणि अनुष्णप्रकाशरूपं उद्योतं कुर्वन्ति, यथा यति-देवोत्तरवैक्रिय-चन्द्र-नक्षत्र-तारक-विमान-रत्नौषध्यः तद् उद्योतनाम' (पद-२३,उद्देश२,सूत्र-५४०)। इससे निश्चित होता है कि चंद्र, नक्षत्र, तारा, रत्न, औषधि इत्यादि का प्रकाश भी जीवसापेक्ष है, उद्योत-नामकर्म सापेक्ष है। इसलिए स्वयं प्रकाशित मणि इत्यादि का भी प्रकाश पृथ्वीकाय के जीव के आधार पर है-ऐसा सिद्ध होता है। पन्नवणासूत्र के प्रथम पद में 'मरगय मसारगल्ले भुयमोयग इंदनीले य' (१,१५) ऐसा कह कर इन्द्रनील इत्यादि मणि बादर पृथ्वीकाय जीव के भेद रूप में बताए गए हैं। इसलिए उद्योतनामकर्म के उदय से रत्न इत्यादि में प्रकाश प्रकट होता है-ऐसा निश्चित होता है। इस प्रकार साक्षात् या परंपरा से जीव के 54 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 124 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524619
Book TitleTulsi Prajna 2004 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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