SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस अवस्था में मन आत्म प्रवृत्त होकर सूक्ष्मता की ओर अग्रसर होने लगता है। बाह्य आडम्बर छूटने लगते हैं। केवल आत्म तत्त्व में लीन मन पूर्णरूपेण लौकिक प्रतीतियों से निरुद्ध हो जाता है। यही मन की निरोधावस्था है। इसके उपरांत साधक कल्पनाविमुक्ति एवं समत्व प्रतिष्ठित होकर आत्ममय हो जाता है। यही मोक्षावस्था है। मन पूर्णरूपेण आत्मा में विलीन हो जाता है। एक मात्र चैतन्य ही इस अवस्था में आलम्बन होता है। श्री अरविन्द भी मुख्य रूप से योगसाधना के द्वारा ही मोक्षावस्था को संभव मानते हैं। वे मनोनुशासनम् में प्रणीत आत्मप्राप्ति की अवस्था से संभवत: आत्मोदय की ओर अग्रसर होते हैं, इसलिए वे ध्यानयोग को आत्मज्ञान की यात्रा समाधि में अत्यन्तावश्यक सोपान मानते हैं 112 बुद्धि, मन, चित्त आदि पदार्थ तो स्वभावतः जड़ हैं। आत्मतत्त्व की शक्ति के कारण ही वे अपना यथेष्ठ कार्य करने में सक्षम हैं। स्वाभावत: वे किसी शक्ति के अधिष्ठाता नहीं हैं। जड़ पदार्थ किसी प्रकार की क्रिया नहीं कर सकता है। आत्मा की चेतनता ही उनमें चैतन्य और क्रियाशीलता उत्पन्न करती है। आत्मा की तुलना में इनकी शक्ति आंशिक होती है। अतः ये अपने ही स्रोत स्वरूप आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने में सर्वथा अक्षम होते हैं। ब्रह्म का ज्ञान आलौकिक साधनों द्वारा ही प्राप्य है। इसलिए बुद्धि उस सत्ता की ओर संकेत करती है किन्तु उस तक पहुँच नहीं पाती हैं। बुद्धि की बोधशक्ति स्वयं परमात्मा की चिन्मात्र शक्ति है। अतः उसका क्षेत्र संकुचित होता है। एकमात्र दिव्य तत्त्व आत्मा ही उस तत्त्व को जान सकता है। वही इस तथ्य का भी ज्ञाता होता है कि जगत् ब्रह्म की अनेक रूपात्मक अभिव्यक्ति है। श्री अरविन्द ने आत्मज्ञान के द्वारा परमात्मा के ज्ञान को स्वयमेव प्राप्य माना है किन्तु वे सीधे परमात्म ज्ञान को संभव नहीं मानते हैं। इस प्रक्रिया में योगी को आत्मप्राप्ति के विभिन्न सोपानों को पार करना पड़ता है। वे ब्रह्मज्ञान के लिए तीन सोपानों को आधार स्वरूप मानते हैं, जिनका गंतव्य ब्रह्मज्ञान है। श्री अरविन्द ने इन्हें आत्मा अथवा परमात्मा के तीन पहलू भी कहा है। इनमें प्रथम पहलू दिव्यात्मा का ज्ञान स्वज्ञान पर आधारित है। मन के अनुसार मानव द्वारा स्वयं 'स्व' का ज्ञान प्राप्त करना ब्रह्मप्राप्ति का प्रथम सोपान है। मुमुक्षु द्वारा सत्पदार्थों का आत्मा में दर्शन करना द्वितीय सोपान है। तृतीय अवस्था में साधक सत् पदार्थों में आत्मा का ही दर्शन करता है। आत्मा का अखण्ड रूप में सर्वव्यापक दर्शन ही ब्रह्मज्ञान का चरम सोपान है। ___ ज्ञान के तीन स्तरों के आधार पर श्री अरविन्द ने मुक्त पुरुषों को भी तीन श्रेणियों में विभक्त किया है। प्रथम सोपान पर आरूढ़ साधक को आत्मा का ज्ञान होने के कारण वह इस अवस्था के अन्त में जीवन्मुक्ति की अवस्था को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार का जीवन्मुक्त पुरुष संसार में अन्य अज्ञानियों की ही भाँति रहता है। वह अपने कर्मों का निर्वाह करता है तथापि उसके द्वारा सम्पादित कर्म बंधनाधायक नहीं होते हैं। आत्मा बंधन और गुणों से सर्वथा परे होती है। इसलिए इसका ज्ञान होने के कारण वह भी अपने को आत्म रूप समझकर 10 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 124 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524619
Book TitleTulsi Prajna 2004 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy