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देखते भी नहीं । भले ही दुनिया वाले उन पर फिदा होते रहे परन्तु भगवान की 1000 वर्ष की ध्यान मुद्रा में कोई अन्तर नहीं पड़ा । दक्षिण भारत में ये गोम्मटेश्वर नाम से प्रसिद्ध हैं परन्तु दिल्ली, आगरा, फरीदाबाद, मेरठ आदि उत्तरी भारत के किसी जैनी से पूछें तो वे इनका नाम बाहुबलजी ही बतलायेंगे। इस मूर्ति के दोनों ओर यक्ष और यक्षी की मूर्तियां हैं जिनके एक हाथ में चंवर तथा दूसरे हाथ में कोई फल है। इनके निर्माता डंकणाचार्य थे जिन्होनें हलेबिड बैल्लूर और सोमनाथपुर के अनुपम कारीगरी पूर्ण मन्दिर बनवाये ।
मूर्ति के सम्मुख का मण्डप नौ देवताओं से सजा हुआ है । यह मूर्ति बिल्कुल दिगम्बर नग्नावस्था में है। टड्डार सीधी खड़ी है और उत्तरोन्मुख है। मूर्ति के विशाल चरण युगल पाषाणोत्कीर्ण कमल में विराजमान बताये गये हैं। शरीर का भारी बोझ सम्भालने के लिए टांगों के आगे पीछे की दिशा को बमीठों वल्मीक, बॉबी के रूप में छोड़ दी गई है। इसके अलावा इसका कोई आधार नहीं हैं। चारों तरफ से ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ से कोई खड़ा होकर समूची मूर्ति को एक साथ दर्शन कर सके। इस मूर्ति का मुख बहुत सुन्दर है और शरीर का कोई भाग इसका मुकाबला नहीं कर सकता ।
इसके नपे-तुले सभी अंग इसकी एक विशेषता है। सामान्यतः जिन अंगों का बड़ा होना चाहिये वे बड़े ही हैं जैसे- कानों का नीचला भाग विशाल और अजानुबाहु । यह मूर्ति नितान्त आडम्बरहीन और सादगीयुक्त है। फिर भी भारतीय शिल्पकला का अद्वितीय नमूना है। इसकी सुन्दरता का मूल कारण इसकी सादगी ही है। कंधों की विशालता इतनी अभूतपूर्व लगती है मानो बाहुबली भगवान के सारे शरीर का बल इन भुजाओं में इकट्ठा हो गया है। एक सीरे से दूसरे सीरे तक सीने की चौड़ाई 26 फुट है।
यह विशाल मूर्ति किस प्रकार यहाँ स्थापित हुई, इस संबंध में शंका की कोई गुंजाइश नहीं है। यह मूर्ति ग्रेनाइट की शिला को काटकर बनाई गई है, इसलिए प्रत्यक्ष रूप से ही यह असंभव है कि इसे कहीं दूसरी जगह बनाकर फिर बाद में विन्ध्यगिरि जैसे चिकने और ढलवां पहाड़ पर लाकर सीधी खड़ी कर दी गई हो । मूर्ति की विशालता के कारण मूर्ति के मध्य के पृष्ठ भाग को देखने के लिए ऊपर चढ़कर जाना होता हैं ।
ज्यों-ज्यों इस मूर्ति को देखते है, त्यों-त्यों इसकी मनोज्ञता हृदय को आकृष्ट किये जाती है और उस शिल्पी अरिष्टनेमी की उंगलियों को धन्यवाद देती है, जिसने करीने से पत्थर में शिव एवं सौन्दर्य भर दिया । आज भी यह विशाल, मनमोहक दुनियाँ का एक सबसे बड़ा आश्चर्य है और जो आगामी हजारों वर्षों तक संसार को आश्चर्य में डाले रहेगी ।
कहा जाता है कि अरिष्टनेमी ने इस मूर्ति को इतनी तल्लीनता से बनाया कि वह इस मूर्ति पर ही सोता था, खाता-पीता था। वह इस मूर्ति को बनाने में इतना तल्लीन हो गया कि छह महिने तक पत्नि बिना मिर्च-मसाले का भोजन लाती रही मगर उसे पता ही नहीं चला। जब मूर्ति बनकर तैयार हो गई और उसने अपने घर में खाना खाया तो वह बोला- क्या घर में मिर्च मसाले नहीं हैं। तब पत्नि ने कहा- छह महिने हो गये घर में मसाले लाए हुए ।
तुलसी प्रज्ञा अंक 123
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