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________________ चाहे वह वंचन वास्तविक हो अथवा भ्रामक / बारम्बार होने वाले ये स्थानीय संघर्ष विकासशील क्षेत्रों जैसे लैटिन, अमेरिका, अफ्रीका, एशिया के देशों में परिवर्तन की प्रक्रिया के परिणाम हैं। इन देशों में पहले से पर्यावरण व अन्य स्थानीय कारकों पर मानव विकास का विपरीत प्रभाव पड़ा है। जहां कि विभिन्न समूहों के असमान सम्बन्ध सामाजिक अन्याय का कारक बने हुए हैं। जहां इन संघर्षों के बीज औपनिवेशिक अनुभवों में निहित हैं, वही उत्तर औपनिवेशिक युग में विकास तकनीकों के चयन, प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन तथा संस्थागत विकास के तरीकों व विश्व आर्थिक व्यवस्था में इन देशों की स्थिति ने स्थिति को और बदतर कर दिया है । इन दोनों आयामों का यदि गहन विश्लेषण किया जाये तो इन दोनों आयामों में विचारणीय सह-सम्बन्ध देखने को मिलता है । अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष जहां सभी जगह व्यक्तियों की सामान्य जीवन शैली, व्यावसायिक ढाँचा, उनकी कमाने की क्षमता सामाजिक सम्बन्धों को प्रभावित करते हैं वहीं किसी भी प्रकार के सामाजिक आर्थिक अन्याय से उपजे स्थानीय संघर्ष विशालतर संसार में संक्रामक रूप से फैलने लगते हैं, महाशक्तियों का हस्तक्षेप उन्हें शांति के लिए भयानक खतरे के रूप में पेश कर देता है। इस प्रकार इन स्थानीय संघर्षों की बारम्बारता मानवता के लिए नुकसान देह ही साबित होती है । परिणामतया इन संघर्षों का स्थानीय व अन्तर्राष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर प्रबन्धन आवश्यक प्रतीत होता है । शांति एवं संघर्ष निदान सम्बन्धी साहित्य एवं कार्य का परीक्षण करने से हमें, महाशक्तियों से विशाल क्षेत्रीय शक्तियों की प्रतिद्वन्द्विता से बचाव के दृष्टिकोण का प्रभुत्व नजर आता है जबकि लोगों के गुटों के मध्य होने वाले स्थानीय संघर्षों जो कि अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव की चिन्त्य सम्भावना रखते हैं, उनकी ओर अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया गया है। तृतीय विश्व के समाजों में संघर्षों के प्रत्यक्ष व तात्कालिक कारण इन देशों में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप होने वाले तकनीकी, जातीय, आर्थिक, सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया से संगति रखते हैं । इस समस्या सम्बन्धी अनेक दृष्टिकोणों का अस्तित्व है जो कि उदारवाद से लेकर मार्क्सवाद तक कहीं न कहीं अपनी स्थिति रखते हैं। ये दृष्टिकोण न केवल आंशिक हैं बल्कि प्रतिस्पर्धा व तनातनी के आधारभूत सिद्धान्त से असंगति रखते हैं जो कि स्थिति को बेहतर बनाने की क्षमता को सीमित करता है । एक दृष्टिकोण गांधीय दृष्टिकोण है, जिस पर कि अभी तक अपर्याप्त ध्यान दिया गया है, किन्तु यह दृष्टिकोण संघर्ष निदान व शांति के क्षेत्र में विचारणीय सम्भावनाएं रखता है शांति से अभिप्राय शांति का पुराना विचार सामञ्जस्य का पर्यायवाची है, दूसरे शांति का यह विचार संगठित व सामुदायिक हिंसा के अभाव को ही शांति का पर्याय मानता है। गेलटन एवं 28 तुलसी प्रज्ञा अंक 123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524618
Book TitleTulsi Prajna 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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