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जिसका सम्बन्ध हमारे अचेतन मन से है। जागृत दशा में जैसे वस्तु अनुसारी ज्ञान और कल्पना दोनों होते हैं वैसे स्वप्नदशा में भी अतीत की स्मृति, भविष्य की सत् - कल्पना और असत्कल्पना आदि होते हैं, इसलिए स्वप्न मानसिक ही हैं।
जैनदर्शन के अनुसार स्वप्न का मूल कारण दर्शन मोहनीय कर्म का उदय है। दर्शन मोह के कारण मन में राग और द्वेष का स्पन्दन होता है, चित्त चंचल बनता है। निद्रावस्था में भी यह चंचलता जब शांत नहीं होती तो स्वप्न के रूप में उभर कर आती है । अर्द्ध निद्रित अवस्था में जब प्राणी की इन्द्रियाँ सुप्त होती हैं और मन जागृत होता है, उस समय वह जागृत मन जो शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श इन्द्रियों के विषयों का सेवन करता है, उस मानसिक क्रिया का नाम स्वप्न है। स्वप्न का तात्पर्य अर्द्धनिद्रित अवस्था के मन सम्बन्धी विचार हैं । ज्ञाताधर्मकथा में महारानी धारिणी के स्वप्न का उल्लेख है । उसके द्वारा उत्तम शयनगार में सुरम्य-सुरभित वातावरण में उत्तम स्वप्न दर्शन से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है। महारानी धारिणी जब सुन्दर शय्या पर, अनुकूल वातावरण में सो रही थी तब पूर्व संचित शुभ कर्मों के योग से व उसके अन्तर्मानस की उदात्त आकांक्षा से उसने सात हाथ ऊँचा, रजतकूट चाँदी के शिखर के समान श्वेत, सौम्य - आकृति वाले, लीला करते हुए, जंभाई लेते हुए एक महान् हाथी आकाशतल से अपने मुख में प्रवेश करते देखा ।
विशेषावश्यक भाष्य में स्वप्न के कारणों को स्पष्ट करते हुए कहा है. -स्वप्न ज्ञान का विषय अनुभूत, दृष्ट, श्रुत, वस्तु होती है । 1. अनुभूत – पूर्व अनुभूत, स्नान, भोजन, विलेपन आदि । 2. दृष्ट-पूर्व दृष्ट हाथी । 3. चिन्तित - पूर्व चिन्तित वैभव आदि । 4. श्रुत - पूर्व श्रुत स्वर्ग आदि । 5. प्रकृति विकार - वात-पित्त आदि । 6. देवता - अनुकूल-प्रतिकूल । 7. अनुपसजल- प्रदेश – ये सब स्वप्न में निमित्त बनते हैं। पुण्य कर्म और पाप कर्म इष्ट-अनिष्ट स्वप्न में निमित्त बनते हैं।
स्वप्न मोह-कर्म और पूर्व संस्कार के उद्बोध के परिणाम हैं। वे यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार के होते हैं। वे समाधि और असमाधि दोनों के निमित्त बनते हैं । किन्तु वे मोह प्रभावित चैतन्य दशा में ही उत्पन्न होते हैं, अन्यथा नहीं ।
स्वप्न का परिणाम
Sleep and Dreaming के लेखक Dr. David के अनुसार स्वप्न मात्र हमारी चिन्ताओं के परिणाम नहीं हैं। लेकिन ये हमारी भावनात्मक एवं बौद्धिक समस्याओं को समाहित करने वाली प्रक्रिया है । ये हमारे विचारों को व्यवस्थित करने में सहायक हो सकते हैं। स्वप्न-फल के संदर्भ में भी भारतीय मनोविज्ञान में विस्तृत विचार हुआ है। आधिव्याधिजन्य व मूल-मूत्रादि बाधाजन्य स्वप्नों को निरर्थक बताया गया है। पंचतंत्र के अनुसार
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2004
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