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________________ का प्रधान उद्देश्य है-आत्मा का सान्निध्य प्राप्त करना । कायोत्सर्ग से शरीर को पूर्ण विश्रान्ति प्राप्त होती है और मन में अपूर्व शान्ति का अनुभव होता है। इसमें क्रोध, माया और लोभ का उपशमन एवं अमंगल, विघ्न और बाधा का परिहार होता है। चूंकि अस्थिर चित्त में आसक्ति और तृष्णा के प्रवेश की सम्भावना सदैव ही वर्तमान रहती है जिससे शान्ति स्थापना में विघ्न उत्पन्न होता है और समत्व के भंग होने की सम्भावना रहती है । एतदर्थ तन और मन की स्थिरता सम्पन्न हो जाने के पश्चात् आवश्यक सूत्र में प्रत्याख्यान का विधान अभिहित हुआ है। इसमें मानव-प्रवृत्ति को अशुभ योगों से विस्थापित कर शुभ योगों में केन्द्रित किया जाता है। प्रवृत्ति को शुभयोग में केन्द्रित करने से इच्छाओं का निरुन्धन हो जाता है, तृष्णाएँ शान्त हो जाती हैं जिससे साधक को शान्ति उपलब्ध होती है । प्रत्याख्यान से साधक के जीवन में अनासक्ति की विशेष जागृति होती है। इसमें वह जिन पदार्थों को ग्रहण करने की छूट रखता है, उन पदार्थों को भी ग्रहण करते समय आसक्त नहीं होता अर्थात् उसके अन्तर्मानस में समस्त भौतिक पदार्थों के प्रति अनासक्ति का भाव समुत्पन्न होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि आवश्यक सूत्र में प्रतिपाद्य आचार का मानव जीवन में प्रभूत माहात्म्य है। इसमें मानव के ऐहिक मूल्यों- एकता, अहिंसा, समभाव, नम्रता, संयम, शान्ति प्रभृति सद्गुणों का निरूपण हुआ है, जिसका अनुगमन कर मानव अपने समस्त द्वन्द्वों, विषमताओं, हिंसाजन्य तनावों से निवृत्ति पा सकता है और अपने जीवन में सुख, शांति, स्थिरता आदि को प्रतिष्ठित कर सकता है। साथ-ही-साथ परिवार, समाज तथा राष्ट्र में रागद्वेष समुत्पन्न स्वार्थपरता, विषमता, संघर्ष, हिंसा, तनाव आदि तत्त्वों को विनष्ट कर एकता, समता, अहिंसा प्रभूति सद्गुणों को प्रतिष्ठित किया जा सकता है। ध्यातव्य है कि अब तक आवश्यक सूत्र के आचार के उन पक्षों की विवेचना हुई, जिसमें प्राणी अपने स्व-स्वरूप का परित्याग कर पर स्वरूप को ग्रहण करता है। तत्पश्चात् स्व से पर की ओर च्युत होने के मूल कारण (राग-द्वेष) की खोज कर उसके निरुन्धन के मार्ग को स्पष्ट करते हुए विभावावस्था से स्व-स्वभावावस्था की ओर प्रतिगमन की अवस्थाओं का निरूपण करता है । अब वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में भी षडावश्यकों की उपादेयता एवं भूमिका की विवेचना आवश्यक हो जाती है। वर्तमान में मानव भौतिकता की आंधी में बहिर्मुखी बनकर उन जीवन-मूल्यों का परित्याग कर रहा है जिससे वह सुख, समृद्धि, शान्ति, विनयशीलता, एकता, समता, संयम प्रभृति सद्गुणों को प्राप्त करता है। मानव बहिर्मुखी बनकर विषमता, हिंसा, संघर्ष, स्वार्थपरता, अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार इत्यादि को अपना रहा है जिससे वह स्वयं अशान्त व व्यथित है। परिवार, समाज व राष्ट्र परेशान है, चिंतित है। यह प्रगति नहीं है प्रत्युत् प्रगति के नाम पर विकसित होने वाला भ्रम है। आज आवश्यकता है, जो अतिक्रमण हुआ है उससे पुनः वापस लौटने की । उन जीवन मूल्यों के पुनर्स्थापन की जिसके अतिक्रमण से वर्तमान परिस्थिति उत्पन्न हुई है। ध्यातव्य है कि समस्त परिस्थितियों का मूल उत्स राग- - द्वेष है। राग-द्वेष के निमित्त ही प्राणी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति का परित्याग कर भौतिक पदार्थों के साथ सम्बन्ध स्थापित तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only 21 www.jainelibrary.org
SR No.524617
Book TitleTulsi Prajna 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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