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निर्जीव वस्तु में अपनी प्रतिभा से हाव, भाव, हेला, विलास और लावण्य को सम्मिश्रित कर त्रैलोक्य रमणीय बना देता है। वह अपनी कला (चित्रकला) के द्वारा उस विभूतिमय स्थान को प्राप्त कर लेता है, जहाँ केवल आह्लाद और रमणीयता की वृत्ति ही अवशिष्ट रहती है।
आगम-साहित्य में अनेक स्थलों पर 'चित्रकार' के वाचक प्राकृत शब्द चित्तगर (चित्रकार), चित्तगरय (चित्रकरक), चित्तार (चित्रकार) आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। ज्ञाताधर्मकथा में मिथिला के एक चित्रकार का वर्णन है, जो हाव, भाव, लालित्य और कल्पना सौष्ठव से सजीव चित्र का अंकन कर देता था। उसे चित्रकारलब्धि (चित्तगर-लब्धि) की सिद्धि प्राप्त थी।
वह बिना देखे भी किसी का चित्र अपनी कल्पना से बना देता था। मल्लिकुमारी' का एक अत्यन्त सुन्दर चित्र काष्ठफलक पर बनाता है, जिसे देखकर अदीनशत्रु राजा मल्लिकुमारी के रूप-यौवन पर मोहित हो जाता है। वह वैसा चित्र था जिसे देव, दानवादि कोई भी बना नहीं सकता। वैसे कला-सम्पन्न चित्रकार का वर्णन यहाँ उपलब्ध है।
प्रज्ञापना में शिल्प-आर्य (श्रेष्ठ-शिल्पकार) के अनेक भेद बताए गये हैं, उनमें चित्रकार (चित्तार) का भी उल्लेख है।38
इस प्रकार जैन-अर्द्धमागधी आगम-साहित्य में चित्रकला की दृष्टि से प्रभूत सामग्री उपलब्ध है। आगमकालीन समाज समृद्ध था। उस काल में भारतीय शिल्प-विज्ञान उन्नतावस्था को प्राप्त था। प्रस्तुत संदर्भ में इसी का दिग्दर्शन कराया गया है।
संदर्भ1. संस्कृत-धातु-कोष, सम्पादक-युधिष्ठिर मीमांसक, पृ. 44 2. उणादिसूत्र संख्या 613 3. अमरकोश 3.4.180 4. विष्णुधर्मोत्तरपुराण 43.38-39 5. तत्रैव 43.24-26 6. आचारचूला 15.28, अंसु. (अंगसुत्ताणि), भाग-I, पृ. 237 7. तत्रैव 8. ज्ञाताधर्म कथा 1.1.9 अंसु.-3, पृ. 7 9. तत्रैव, 1.1.24, अंसु. 3, पृ. 10 10. तत्रैव, 1.1.89, अंसु. 3, पृ. 34 11. तत्रैव, 1.1.129, अंसु. 3, पृ. 48 12. तत्रैव, 1.8.49, अंसु. 3, पृ. 165
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 120-121
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